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जैनधर्म की सर्वव्यापकता
अर्थ है सुख के लिये । भू के अन्य पुरुष रूप भवति से होने वाले अर्थात् स्वभाव वाले। इस अर्थ को लेकर शंभू सुख के दाता हैं । शिव का नाम शंकर भी है । शं करोति इति शंकरः अर्थात् सुख को करने वाले शंकर। अतः शिव, महादेव, शंकर और जिनेश्वर ऋषभ सब एकार्थवाची हैं ।
जैनधर्म की सर्वव्यापकता जैनधर्म मात्र भारत में ही नहीं, किन्तु तुर्किस्तान, नेपाल, भूटान, ब्रह्मा, अफ़ग़ानिस्तान, चीन, महाचीन, ईराण, इराक, पशिया, कोचीन, तिब्बत, अरब, लंका, आस्ट्रेलिया, काबुल, कम्बोज (पामीर), कपिशा (बेग्राम), शकस्तान आदि अनेक विदेशों में भी इसके प्रसार के उल्लेख व स्मारक मिलते हैं। यहां पर कतिपय देशों में जैनधर्म के प्रसार का विवरण देते हैं। इससे हम जान पायेंगे कि प्राचीन समय में जैनधर्म का सारे विश्व में प्रसार व प्रभाव था। (१) तुर्किस्तान (टर्की) में जैनधर्म
इतिहासकारों का कथन है कि तुर्किस्तान में भारतबर्ष की सभ्यता के जो चिन्ह मिले हैं, उससे सूचित होता है कि किसी ज़माने में यह देश विद्या वृद्धि में विशेष उन्नत था। इसमें सन्देह नहीं कि भारतीय सभ्यता के जितने पुराने चिन्ह तुर्किस्तान में मिले हैं उतने स्वयं भारत में भी अभी तक नहीं मिले । आज से लगभग १०० वर्ष पहले तुर्किस्तान के पूर्वी भाग के किसी स्थान पर ज़मीन खोदते समय वहां जमीन में पड़ी हुई एक पुस्तक मिली थी, वह वृक्ष की छाल पर लिखी हुई थी। अंग्रेज रेजिडेण्ट ने उस पुस्तक को मोल लेकर कलकत्ता भेज दिया था। हार्नल साहब ने उसे पढ़कर उसपर एक निबन्ध लिखा । इससे मालूम हुआ कि यह गुप्तकालीन देवनागरी लिपि में है। विषय उसका वैद्यक है । यह पन्द्रह सौ वर्ष पुरानी है। कई स्थानों से मूमि को खोदने से हस्तलिखित ग्रंथ मिले हैं जो १७००, १८०० वर्ष पुराने हैं । प्राकृत संस्कृत के ग्रंथ ताड़पत्र, भोजपत्र, काष्ठ, चमड़े
आदि पर लिखे हुए हैं। इनमें अधिकतर खोराष्टी लिपि तथा प्राकृत माषा में लिखे हुए हैं । यह बात सर्व विदित है कि जैन शास्त्रों की रचना प्राचीनकाल से ही प्राकृत भाषा में होती रही है अतः यहां से प्राप्त ग्रंथ जैनधर्म सम्बन्धी ही होने चाहिये, विद्वानों के इनके शोध-खोज, पठन-पाठन से जैनधर्म के इतिहास पर सुन्दर प्रकाश पड़ने की सम्भावना है। इन ग्रंथों को जापानी, जर्मनी, फ्रांसीसी और अंग्रेज लोग जिसके हाथ जो पड़ा वह अपने-अपने देशों में ले गए। प्राकृत भाषा के ग्रंथ मिलने से ज्ञात होता है कि प्राचीनकाल में इस देश में जैनधर्म का व्यापक अस्तित्व रहा होगा। किन्तु आज तो वहां जैनों का तथा जैन स्मारकों का सर्वथा अभाव है।
इस देश में इस्तम्बोल नगर से ५७० कोस की दूरी पर तारातम्बोल नामक एक बहुत बड़ा नगर था। वहां विक्रम की १७वीं शताब्दी तक बड़े-बड़े विशाल जैन मन्दिर, जैन पौषधशालाएं, उपाश्रय लाखों की संख्या में जैनधर्मानुयायी चतुर्विध श्रीसंघ तथा संघाधिपति जैनाचार्य अपने शिष्यों प्रशिष्यों के मुनि समुदाय के साथ विद्यमान थे । आचार्य श्री का नाम उदयप्रभ सूरि था, वे युगप्रधान थे। वहां का राजा तथा सारी प्रजा जैनधर्मानुयायी थे। समय समय पर वहां अनेक देशों से जैन लोग यात्रा के लिये जाते थे। भारत से वहां जाने वाले अनेक यात्रियों के उनके यात्रा विवरण सम्बन्धी हस्तलिखित पत्र भारत के अनेक जैनशास्त्र भंडारों में सुरक्षित हैं । यहां पर ऐसे एक पत्र का संक्षिप्त विवरण देते हैं । उस समय भारत में मुग़ल सम्राट शाहजहां का राज्य था। विक्रम संवत्
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