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मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म देव का स्मरण चालू था। इस लिये भादों सुदि पंचमी पर्व सामान्य रूप में इसे वैदिक आर्य जाति भी मानती थी। जैनागमों में वर्णन है कि इस अवसर्पिणी काल में सर्वप्रथम भादों सुदि पंचमी को आध्यात्मिक शुद्धि का रूप देकर इस दिन को सांवत्सरिक पर्व के रूप में चालू किया । वास्तव में इस ऋषि पंचमी के नाम में ही ऋषभ की ध्वनि समायी हुई है । ऋषभ पंचमी ही शुद्ध नाम होना चाहिये । और इसी का ही अपभ्रश रूप ऋषि पंचमी नाम प्रसिद्ध है। यदि यह बात ठीक हो तो जैन-जैनतर दोनों वर्गों में प्राचीन काल से चली आने वाली ऋषभ की मान्यता की पुष्टि होती है।
इस प्रकार ऋषभ और शिव के रूप में जो अद्भुत समानता दिखलाई पड़ती है, वह संयोगमात्र अथवा आकस्मिक नहीं है, बल्कि लगता है कि दोनों व्यक्तित्व पृथक-पृथक नहीं हैं। इन्दौर आदि कई म्युजियमों में योगलीन शिवमूर्तियों को और ध्यानलीन ऋषभ की मूर्तियों को देखने से ऋषभ और शिव की मूर्तियों में कोई अन्तर नहीं दिखाई पड़ता। ऐसा प्रतीत होता है कि शिव का चारित्र जो ब्राह्मणीय पुराणों में अलंकारिक भाषा में वर्णित है, यदि इस परत को हटाकर चारित्र की तह में झांकें तो वे ऋषभदेव दिखलाई देने लगेंगे। अतः यह असंदिग्ध रूप से स्वीकार किया जा सकता है कि ऋषभदेव और शिव नाम मात्र से ही भिन्न है, वस्तुतः भिन्न नहीं है। इसी लिये शिव पुराण ७/२/६ में २८ योगावतारों में नवां अवतार ऋषभदेव को स्वीकार किया है।'
(२८) जैनागमों में ऋषभदेव का एक नाम ऋषभध्वज भी कहा है और वेदों में शिव का एक नाम ऋषभध्वज भी है।
यह कहना अनुचित न होगा कि ऋषभदेव को ही अर्हत् और शिव के रूप में प्राग्वैदिक काल से ही भारतवासियों ने अपना आराध्यदेव स्वीकार करके ऋषभदेव की सांगोपांग पुरुषाकार की तदाकार स्थापना द्वारा तथा अतदाकार शिवलिंग पृ० ४६ की टिप्पणी नं0 7 के प्राकार द्वारा उपासना का माध्यम बनाकर प्रात्मकल्याण की साधना की। शिवलिंग का वर्तमान प्रचलित स्वरूप स्त्री-पुरुष की जननेन्द्रियों द्वारा संभोग का प्रतीक हो जाने से जैन दृष्टि से पूजनीक नहीं है । क्योंकि यह विकृत रूप है।
सारांश यह है कि यह बात निर्विवाद है-जैनधर्म जिसको ऋग्वेद में प्रार्हत् धर्म के नाम सेकहा है, भारतवर्ष की अपनी मूल और आस्तिक संस्कृति है। प्राग्वैदिक तथा प्रागैतिहासिक काल से भी अति प्राचीन है और इसका स्वतंत्र संस्कृति के रूप में प्रादुर्भाव हुआ है जिसकी कालगणना अंकों की सीमा से बाहर है। यह धर्म न तो विश्व की किसी संस्कृति के विरोध में अथवा किसी संस्कृति की शाखा रूप उत्पन्न हुआ है और न ही किसी का रूपांतर है। प्रार्हत् संस्कृति प्राध्यात्म प्रधान है और विश्व को भारत की देन है जो प्राग्वैदिक काल से विश्व ने अपनाई जिससे विश्व के सब देशों में इसका सर्वव्यापक प्रचार तथा प्रसार हुआ। जब वैदिक आर्य लोग भारत आये उस समय प्रार्हत् संस्कृति फल-फूल कर सर्वजनहिताय हो रही थी। इसलिये वेदों, स्मृतियों, पुराणों उपनिषदों में भी इस संस्कृति को सर्वोच्च स्थान मिला। विक्रम की सातवीं शताब्दी तक आर्हत् संस्कृति सारे विश्व में प्रसारित रही।
शिव को शंभू भी कहते हैं । शंभू दो अक्षरों के मेल से बना है-शं+भू=शंभू । 'शं' का
1. पं० सुखलाल कृत दर्शन और चिंतन ।
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