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________________ जैनधर्म की प्राचीनता और लोकमत (२४) चतुर्मुख शिव __ शिवलिंग पर जटाजूटधारी शिव की चारमुख वाली मूर्तियां भी पुरातत्त्व संग्रहालयों में सुरक्षित हैं । ऐसी एक प्रतिमा लखनऊ के पुरातत्त्व संग्रहालय में भी सुरक्षित है। श्री ऋषभ देव आदि सब तीर्थ कर जब समवसरण में बैठकर धर्मोपदेश देते हैं, उस समय उनके चारों तरफ एक-एक (चार) मुख दीख पड़ते हैं । (२५) शिव और मृगचर्म ___ शिव की कतिपय मूर्तियों और चित्रों में बायें कन्धे से लेकर कटि तक मृगचर्म भी अंकित होता है । श्री ऋषभदेव ने जब मुनि दीक्षा ग्रहण की थी तो प्राचीन जैनागमों के अनुसार लगभग १ वर्ष तक उनके बांयें कन्धे पर देवदूष्य वस्त्र रहा था तत्पश्चात् वस्त्र न रहने से वे नग्न रहे। इस देवदूष्य वस्त्र ने शिवोपासना तांत्रिकों के हाथों पड़ जाने से शिव मूर्तियों पर मृगचर्म अंकन का स्थान प्राप्त कर लिया। (२६) शिव और ऋषभ की पूजा विधि में एक रूपताअग्नि पुराण में शिव की पूजा का विधान इस प्रकार किया है पत्रः पुष्पैः फलैर्वापि जला विमलैः सदा । कनवीरैः पूज्यमानः शंकरो वरदो भवेत् ।। अर्थात् पत्र, पुष्प, फल, निर्मल जल, सुगन्ध नैवेद्य आदि से शिव की पूजा करने से वरदाई होता है। इसी प्रकार श्री ऋषभादि अर्हतों की पूजा भी जल, सुगंध, पुष्प, फल, नैवेद्य आदि अष्ट द्रव्यों से होती है। (२७) ऋषि पंचमी, यह ऋषभ पंचमी होनी चाहिये भादों सुदि पंचमी जैनेतरों में ऋषि पंचमी के रूप में सर्वमान्य है । जैन परंपरा में यह पंचमी सांवत्सरिक पर्व मानी जाती है। जैन परम्परा में यह पर्व सर्व पर्यों में उत्तम, उत्कृष्ट और आध्यात्मिक होने के कारण पर्वाधिराज माना जाता है। यही पर्व वैदिक ब्राह्मण परम्परा में ऋषि पंचमी के रूप में अति पवित्र माना जाता है । यह पंचमी किसी एक अथवा अनेक वैदिक परम्परा के ऋषियों की स्मृति रूप में मनाई जाती हो, इस का कोई विवरण (प्रमाण) उपलब्ध नहीं है। दूसरी तरफ जैन (ग्रार्हत्) इसी पंचमी को सांवत्सरिक पर्व मान कर इसे महापर्व से नामांकित करते हैं । इसदिन सर्वोत्तम आध्यात्मिक जीवन का अनुभव करने के लिये मुमुक्ष प्रयत्नशील रहते हैं। मुझे लगता है कि जैन और वैदिक परम्परा के जुदा-जुदा नाम के एक ही दिन में मनाये जाने वाले दोनों पर्व भादों सुदी पंचमी को मानने की मान्यता किसी समान तत्त्व में है और यह तत्त्व मेरी दष्टि से ऋषभदेव के स्मरण के लिये है ।एक अथवा दूसरे कारण से वैदिक आर्य जाति में ऋषभ 1. जैन शास्त्रों में वर्णन है कि तीर्थ कर केवलज्ञान पा लेने पर स्वयं देवताओं द्वारा निर्मित समवसरण (व्याख्यान मंच) पर पूर्व दिशा में मुख करके बैठते हैं तथा दक्षिण, पश्चिम और उत्तर इन दिशामों में उस तीर्थ कर के देवता ऐसे प्रतिबिम्बों की रचना कर विराजमान कर देते हैं जो साक्षात् तीर्थ कर ही मालूम पड़ते हैं । तब प्रभु चतुमुंख मालूम पड़ते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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