________________
५०
मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म कारण (समाधान) यह है, कि जीव को मानव शरीर से ही मुक्ति होती है और मानव का शरीर बिन्दु के समान गोलमटोल नहीं होता । वह ऊँचे लम्बूतरा आकार लिए होता है ।
इस लिये ऐसा आकार बनाया जाता है । दूसरी बात यह है कि शिवलिंग का प्रतीक श्री ऋषभदेव का पद्मासन स्थित प्रकार प्रतदाकार स्थापना है ( प्रतदाकार का अर्थ है-मानव की सांगोपांग आकृति से भिन्न आकार ) | पद्मासनासीन मानव का शरीर गोलमटोल नहीं होता, किन्तु लंबूतरा होने से लिंग का आकार भी लम्बूतरा रखा गया है । तदाकार स्थापना तीर्थंकर की सांगोपांग मनुष्याकृति की प्रतिमा है । श्री ऋषभदेव का निर्वाण (मोक्ष) पद्मासन में बैठे हुए ध्यानावस्था में हुआ था । इस लिये इसी प्रकार से ऋषभदेव की मुक्तात्मा सिद्धशिला पर विराजमान होने से शिवलिंग का लंबूतरा श्राकार बनाया गया था । यह भी उल्लेख है कि सिद्धशिला के ऊपर सिद्ध का जीव धर रहता है, साथ सट कर नहीं रहता । यही कारण है कि जिनमंदिर में पूजा करते समय चावलों का पृ. ४६ टिप्पणी 5 का आकार बनाकर सिद्ध जीव के प्रतीक रूप बिन्दु को अर्द्धचन्द्राकार सिद्ध शिला से अधर बनाया जाता है । परन्तु पाषाण प्रतिमा में ऐसा सम्भव नहीं है। हम लिख श्राये
तिब्बती भाषा में लिंगपूजा का अर्थ क्षेत्रपूजा है । कैलाश तिब्बती क्ष ेत्र में है और श्री ऋषभदेव का निर्वाण भी तिब्बती पर्वत श्रृंखला की प्रति उत्तिंग चोटी (अष्टापद पर्वत) पर हुआ था । तिब्बती लोग कैलाश पर्वत को प्राचीन काल से ही प्रति पवित्र मानते आ रहे हैं । जिसे वे लिंग पूजा कहते हैं। शिव भक्त भी लिंग पूजा करते हैं। आर्यों के यहां आने से पहले लिंग पूजा से सिद्ध की पूजा काही आशय' था किन्तु जब शैवधर्म तांत्रिकों के हाथों में पड़ गया तब लिंग 'क्षेत्र' के अर्थ में न रहकर पुरुष की जननेन्द्रीय के अर्थ में लिया जाने लगा । इतना ही नहीं किन्तु उन्होंने पर्वत पर तपस्या के फल स्वरुप प्राप्त हुई श्रात्मसिद्धि को पार्वती नाम से एक स्वतंत्र स्त्री के व्यक्तित्व का रूप दे दिया और उस स्त्री की जननेन्द्रीय में पुरुष जननेन्द्रीय को स्थापन करके इस नई श्राकृति को शिवलिंग की संज्ञा दे डाली । श्रात्मसिद्धि रूप द्वादशांग जिनवाणी से प्राप्त गणपति ( गणधर ) तथा षण्मुख ( षड् द्रव्यात्मक) रूप जैनागमरूप संतति द्वय को क्रमशः हाथी की सूंड वाले लम्बोदर गणेश तथा छह मुंह वाले कार्तिकेय की मानव आकृतियों का रूप देकर शिव और पार्वति की संतान रूप कल्पना कर डाली तथा संसार संहारक शिव के शिवलिंग को जननेन्द्रीय रूप में कल्पणा करके संसार सर्जक बना डाला । ये सारी बातें शिव ( ऋषभ ) के चरित्र के विपरीत बनाकर शिव लिंग का स्वरूप विकृत बना दिया गया । "
(२३) शिवलिंग पर तीन रेखाएं -
श्री ऋषभदेव की आत्मा निर्वाण के पश्चात् सिद्धशिला पर सिद्धावस्था में रत्नत्रय स्वरूप में स्थित है । इस लिये सिद्धावस्था के प्रतीक रूप रत्नत्रय की तीन रेखाएं लिंग पर अंकित की जाती है | अतः शिवलिंग का आकार वास्तव में पृ० ४६ में टिप्पणी नं. 7 के समान था ।
1. In fact Shiva and the worship of Linga and other features of popular Hinduism were well established in India long long before the Aryans
came.
( K. M. pannker A survey of Indian history P. 4)
2. शिवलिंग का वर्त्तमान स्वरूप संभोग का प्रतीक होने से जैन दृष्टि से पूजने योग्य नहीं हैं ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org