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________________ जैनधर्म की प्राचीनता और लोकमत ४६ तिब्बत से ही प्रारम्भ हुआ है । कैलाश (अष्टापद) पर्वत की ढलान तिब्बत की तरफ है। अाज भी तिब्बती लोग इस पर्वत की बड़ी श्रद्धा से पूजा करते हैं। (२२ ) शिवलिंग का आकार जैन शास्त्रों में शिव मोक्ष को कहा गया है । लिंग का अर्थ इन्द्र द्वारा निर्मित क्षेत्र या तीर्थ है। इन्द्र द्वारा निर्मित तीर्थ के विषय में हम पहले लिख पाए हैं। अब यहाँ क्षेत्र के विषय में प्रकाश डालेंगे। शिवलिंग का अर्थ 'मोक्षक्षेत्र' हुअा। जैन शास्त्रों में मोक्षक्षेत्र सिद्धशिला' को माना है । जो लोकाग्र भाग पर स्थित है । मुक्त जीवों का निवासस्थान इसी सिद्धशिला पर है । सिद्ध शिला का आकार अर्द्धचन्द्राकार' अंकित किया जाता है और उस पर सिद्ध-मुक्त जीव का बिन्दु का आकार अंकित किया जाता है। दोनों को मिलाकर चन्द्रबिन्दु ! का आकार अंकित किया जाता है जैन लोग श्री जिनमन्दिर में जाकर तीर्थंकर की पूजा करते समय उनकी प्रतिमा के सामने अक्षतों (चावलों) से टिप्पणी नं० 5 में दिया हुआ प्राकार बनाते हैं । इस चन्द्रबिन्दु के नीचे इन तीन बिन्दुओं का प्रयोजन रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र) का प्रतीक है । इस प्रकार के अंकन का प्रयोजन यह है कि सिद्धक्षेत्र (सिद्ध शिला) पर विराजमान मुक्तजीव रत्नत्रय स्वरूप हैं । उनकी उपासना से पूजक को भी इस पद की प्राप्ति होती है। जब इस प्रतीक का अंकन प्रतिमा में किया गया तो पाषाण खण्ड में टिप्पणी नं0 7 में दिया हुआ प्राकार बनाना पड़ा। कारण यह था कि बिन्दुरूप मुक्तजीवों के आकार को अर्द्धचन्द्राकार रूप सिद्धशिला में बिना अाधार के ऊंचा रखना असम्भव था, और रत्नत्रय रूप तीन बिन्दु सिद्धशिला के प्राकारके नीचे अलग बनाना भी असम्भव होने से मुक्त जीवरूप लिंग पर ही तीन रेखाओं के रूप में अंकन करके शिवलिंग का रूप दे दिया गया । अब यह प्रश्न होता है कि प्रर्द्ध चन्द्राकार पर बिन्दु न बनाकर लम्बतरा प्राकार क्यों बनाया गया? इसका ई० स० १६५१ से १६५६ के वर्षों में नागपुर निवासी एक बोहरा जाति के जैन जो hills forest contractor थे। तिब्बत में मानसरोवर तक गये थे। वहां पर जाकर उन्होंने अष्टापद पर्वत के फोटो खींचे थे और एक परिपत्र में वहां का अपनी प्रांखों देखा विवरण इस असली फोटो के साथ प्रकाशित कर अनेक विद्वानों, जैन संघों को भेजा था और अनेक जैनपत्रों ने इसे प्रकाशित भी किया था। इस फोटो को देखते ही लगता था कि पर्वत वास्तव में ही जैन साहित्य में वर्णित अष्टापद है। पहाड़ प्राकृतिक या नैसगिक नहीं है किन्तु मानवीय हाथों ने इसे घड़ा है ऐसा लगता है। चक्रवर्ती भरत द्वारा बनाई आठ सीढ़ियां और सगर चक्रवर्ती के बेटों द्वारा बनाई खाई भी विद्यमान है। उसने एक परिपन में यह भी लिखा था कि सूर्य की धूप में यह पहाड़ बरफ से ढका होने पर भी सुनहरी नजर आता है। तेज हवाओं के साथ बड़ी अजीब सी घंटियों की आवाजें सुनाई पड़ती है। इन्हीं परिपत्रों के आधार से स्व. लाला सागरचन्दजी जैन समाना वालों ने इस पर्वत के विषय में उर्दू भाषा में एक लेख लिखा था जिसका हिन्दी रूपांतर उनके सुपुत्र श्री महेन्द्रकुमार जी मस्त के सौजन्य से प्राप्त हया है। अतः इसे यहां अक्षरशः दिया गया है। 7. ००० ००० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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