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________________ जैनधर्म की प्राचीनता और लोकमत ४५ अर्थात् --गणपति अथवा गणेश शब्द का अर्थ गणों का अध्यक्ष अथवा लोकतन्त्र का राष्ट्रपति लगाया जाता है। २. "इलाध्यः स एव गणवान राग-द्वेष वहिष्कृतः। भूतार्थ कथने यस्य स्थेप्रस्येव सरस्वती ॥" __ अर्थात् - वही गणवान (गणपति) श्लाघनीय है, जिसकी वाणी राग-द्वेष का बहिष्कार करने वाली है तथा वह एक न्याय मूर्ति के समान भूतकालीन घटनावलियों को यथार्थ रूप से प्रस्तुत करता है। अतः यह स्पष्ट है कि गणधर ही शिव का गणपति पुत्र है जिसे बाद में पुराणकारों ने गजमुख वाले गणपति के रूप में बदल दिया। ऐसा मालम होता है कि भारत में जब वैदिक आर्य प्राये थे और उन्होंने ईसा पूर्व हवीं शताब्दी के लगभग यज्ञ-योगों की प्रथा चलाई थी। उस समय जना के तेईसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ का बहुत प्रभाव था। पार्श्वनाथ का पार्श्व यक्ष नाम का एक देव यक्ष रूप में परमभक्त था। उसकी प्राकृति गजमख मानव शरीर की मानी जाती है। जहां पार्श्वनाथ का मंदिर बनाया जाता है वहां पाश्र्वयक्ष की प्रतिमा भी विराजमान की जाती है। जब वैदिक ब्राह्मणों ने जैनों की प्रतिस्पर्धा में चौबीस अवतारों की कल्पणा की तब उसी प्रतिस्पर्धा में गणपति को भी पार्श्वयक्ष की प्राकृति में बदल दिया गया। उसमें पार्श्वयक्ष की सवारी गलहरी है उसके बदले चूहे की सवारी बना दी होगी, जो हो। पुरातत्त्ववेत्ताओं को कंकाली टीलादि जैन स्तपों तथा जैन मंदिरों के खंडहरों से प्रायः गजमुखवाले पार्श्वयक्ष की प्रतिमाएं भी मिलती रहती हैं। जिन्हें वे लोग अपनी अज्ञानता के कारण ब्राह्मणीय मान्यता वाला गणेश मानकर संग्रहालयों में रखते हैं। इसी प्रकार इन्हीं जैन स्थापत्यों के खंडहरों से प्राप्त जैन यक्ष ----यक्षणियों, शासनदेवों-शासनदेवियों की प्राप्त मूर्तियों को भी अजैनों के देवी-देवता के रूप में मानकर संग्रहालयों के रेकार्ड तैयार करके जैन संस्कृति और इतिहास के साथ खिलवाड़ करके अपनी अज्ञानता का परिचय देते हैं। अपरंच पार्श्वयक्ष की ऐसी प्रतिमाएं भी मिलती हैं कि जिनकी मुखाकृति हाथी की लम्बी सूड वाली मानवाकृति के सिर पर सर्पफण एवं . पांवयक्ष कछए पर बैठी हुई गणेशाकृति होती है, अथवा पार्श्वयक्ष की प्रतिमानों पर कोई चिन्ह नहीं भी होता है । (१६) षण्मुख श्री ऋषभदेव ने केवलज्ञान प्राप्त करने के बाद जो वाणी द्वारा उपदेश दिया वह द्वादशांग वाणी के नाम से प्रसिद्ध है । प्रभु ने जो अर्थ' से पदार्थों का स्वरूप अपनी वाणी द्वारा बतलाया, उसे उनके गणधरों ने भी प्रत्यक्ष रूप में सुना और सुनकर उन्होंने उस श्रुतधारा को सूत्र रूप में गुंथन करके उन्हें द्वादश अंगों में विभाजित किया। इसलिये प्रभु की वाणी द्वादशांगवाणी कहलाई। इस द्वादशांग वाणी द्वारा ऋषभदेव के दूसरे पुत्र रूप आगम की उत्पत्ति हुई । इस पुत्र का नाम षण्मुख क्यों दिया गया ? इसका समाधान यह है कि षण्मुख का अर्थ है छह मुह वाला । श्री ऋषभदेव की द्वादशाग वाणी में छह द्रव्यो-जीवास्तिकाय, पदगलास्तिकाय, धमास्तिकाय, अधमास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और काल द्वारा विश्व के स्मस्त पदार्थों के स्वरूप का वर्णन था अथवा सारे विश्व 1. वेद की रचना पहले मूल में सूत्र रूप में हुई और उसका अर्थ पीछे बाद में किया गया जैनागमों को पहले तीर्थकर ने अर्थरूप में और बाद में गणधरों ने सूत्र रूप में गुंथन किया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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