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मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म ही स्वयं ऋषभ के रूप में अवतार लिया माना जाता है । गिरजा शब्द गिर+जा से निष्पन्न हुआ है । गिर और गिरा एकार्थवाची शब्द हैं। गिरा का अर्थ है 'वाणी' और 'जा' का अर्थ है उससे उत्पन्न । अतः गिरजा शब्द का अर्थ हुअा वाणी द्वारा उत्पन्न अथवा वाणी द्वारा प्रतिपादित श्रुतधारा-पागम । अथवा शिव प्रात्मा को भी कहते हैं और गिरा को ज्ञान कहा है । अर्थात ऋषभदेव की वीतराग प्रात्मा और केवलज्ञान का तदात्म्य सम्बन्ध ही सर्वज्ञ-ऋषभदेव का वास्तविक स्वरूप है।
और उनके मुख से मुखरित द्वादशांग वाणी संसार के प्राणियों के लिए कल्याणकारिणी है। अतः इससे ऋषभ रूप शिव का द्वादशांग वाणी रूप गिरजा का तदात्म्य सम्बन्ध बतलाकर और इससे द्वादशांग को उनकी आत्मा से अभिन्न मानकर अभिन्नता बतलाई है। (१५-१६) शिव को गिरजा से दो पुत्र :
हिन्दू शास्त्रों में शिव को गिरजा से दो पुत्रों की प्राप्ति का वर्णन है । १. गणेश (गणपति) और २. कार्तिकेय (षण्मुख-छह मुंहवाला) ।
श्री ऋषभदेव को भी उनकी द्वादशांग वाणी से दो पुत्रों की प्राप्ति हुई थी। १. गणधर (गणेश-गणपति) और षड्द्रव्यात्मक पागम ।
(१५) गणेश का अर्थ है, गणों का ईश (स्वामी) तथा गणपति का अर्थ है गणों का पति (नेता) । इन दोनों शब्दों का एक ही अर्थ गणों का नेता-स्वामी होता है। जैनागमों में गण मुनियों के उस समूह को कहते हैं जो एक प्राचार्य के अधिपत्य में रहकर पठन-पाठन और निरातिचार चारित्र का पालन करता है । इस गण के नेता को जैन ग्रागमिक भाषा में गणधर कहा है। जिसका अर्थ होता है मनियों के गण को धारण करने वाला नेता । यह शब्द गणेश और गणपति का पर्यायवाची है । ये प्रत्येक तीर्थंकर के मुख्य शिष्य होते हैं जो अपने तीर्थंकर के मुनियों के गणों को अपनी निश्रा में लेकर उनको मुनिचर्या में व्यवस्थित, सुदृढ़ रखते हैं और चारित्र के पालन में सहयोगी होते हैं । श्री ऋषभदेव के ऋषभसेन आदि ८४ गणधर थे। जो ऋषभदेव की वाणी से बोध प्राप्त कर उनके शिष्य रूप पुत्र की संज्ञा को प्राप्त हुए थे । अतः श्री ऋषभदेव को उनकी वाणी से गणधर रूप पुत्र समूह की प्रथम पुत्र रूप में प्राप्ति हुई। जो गणेश, गणपति, गणधर कहलाये । इस प्रकार प्रभु ने मुनि संघ की स्थापना कर गुरु पद रूप पुत्र की प्राप्ति की।
हिन्दू पुराणकार गणेश को लम्बी सूड सहित हाथी के मुख वाला मनुष्य शरीरी मानते हैं । गणपति शिव का बड़ा पुत्र है और गणधर तीर्थंकर का मुख्य (बड़ा) शिष्य है। अथवा साधु को तीर्थकर का शिष्य रूप पुत्र माना है । जैन श्रमण ब्रह्मचारी होता है अतः उसके इस अवस्था में पत्नी नहीं होती। अर्हत के शिष्यों को ही उनकी संतान कहा जाता है । गणधर राग द्वेष के विजेता होकर केवलज्ञान प्राप्त करके वीतराग सर्वज्ञ-सर्वदर्शी, विश्व के स्वरूप को हस्तामलकवत जानते हैं, और सामान्य केवली बनते हैं । अन्त में निवीण प्राप्त करके मुक्त हो जाते हैं।
कश्मीर का इतिहासकार कवि कल्हण अपने राजतरंगिणी नामक ग्रंथ में लिखता है कि कश्मीर में गणपति का स्वरूप इस प्रकार से माना जाता है और इसकी पुष्टि ऋग्वेद भी करता है :
१. "गणानां त्वा गणपति" (ऋग्वेद २:२३:१)
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