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________________ ४३ जैनधर्म की प्राचीनता और लोकमत उसे पहचाना जाता है। श्री ऋषभदेव का प्रतीक वृषभ- बैल है। जंघा को शरीर की स्वारी माना गया है । अतः शिव का वाहन भी नांदी [बैल ] है और शिव के मंदिर में शिव प्रतिमा [शिवलिंग ] के सामने नांदी की प्रतिमा भी होती है । (११) एक हजार वर्ष तक तपस्वी जीवन : पुराणों में वर्णन मिलता है कि शिव ने कैलाश पर्वत पर एक हजार [ सौर ] वर्षों तक तप किया था और उस समय ध्यानारूढ़ होकर योगी के रूप में स्थिर रहे । श्री ऋषभदेव ने भी दीक्षा लेने के बाद एक हजार वर्ष तक छद्मस्थावस्था में तप किया और पश्चात् चार घातिया कर्मों को क्षय कर केवलदर्शन, केवलज्ञान प्राप्त कर सर्वदर्शी सर्वज्ञ बने । (१२) गंगावतरण : मान्यता है कि गंगा नदी हिमवान पर्वत के पद्मसरोवर से निकल कर पहले पूर्व की ओर फिर दक्षिण की ओर बहती है। वहां गंगाकूट नामक एक चबूतरे पर जटाजूट मुकुट से सुशोभित श्री ऋषभदेव की एक प्रतिमा है। सर्व प्रथम उसके जटाजूट पर गंगा की धारा पड़ती है । मानो गंगा उसका अभिषेक ही कर रही हो। इसी प्रकार शिव के लिए भी मान्यता है कि गंगा जब आकाश से अवतरित हुई तो शिव की जटानों में आकर गिरी और वहीं बहुत समय तक विलीन रही । पश्चात् वहां से निकलकर धरती पर चली । (१३) संसार संहारक : हिन्दू पुराणों में ब्रह्मा को संसार का स्रष्टा, विष्णु को पालक तथा शिव को संहारक माना है । श्री ऋषभदेव ने भी सर्व कर्मों को क्षय करके जन्म-मरण रूप संसार में आवागमन को नाश करके शाश्वत मोक्ष को प्राप्त कर संसार का अन्त कर दिया । शिव के जिस तृतीय नेत्र और उसके खुलने पर संसार के संहारक रूप में कल्पना की गई है । वही ऋषभदेव का आत्मज्ञान रूप केवलज्ञान तृतीय नेत्र है । उसकी प्राप्ति ( खुलने ) के बाद ऋषभदेव ने जन्म-मरण रूप संसार का नाश - अन्त (संहार) किया और अजर-अमर रूप मोक्ष प्राप्त किया था । (१४) शिव ओर गिरजा : गिरजा को शिव की पत्नी कहा है । हिन्दू पुराणों में शिव का श्राधा अंग गिरजा को माना है । ऋग्वेद आदि ब्राह्मण साहित्य में ऋषभदेव का एक नाम शिव भी कहा है । अथवा शिव ने 1. आदि - जिण - पडिमा जड मउड सेहरिल्लाओो । पडिमोवरम्मि गंगा अभिसित्त मणा व सा पडदि । (तिलोयपण्णाति ४-२३० ) सिस बुकाणिय सिहासणं जडामंडलं । जिणमभित्ति, मणा वा ओ दिण्णा मत्थए गंगा ।। (तिलोयपण्णत्ति ४-५६० ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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