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मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म
(६-७) त्रिशूल और अंधकासुर:
जैन शास्त्रों में श्री ऋषभदेव के केवलज्ञान के सिलसिले में अनेक स्थानों पर अलंकारिक वर्णन मिलता है कि उन्होंने त्रिरत्न (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चरित्र) रूप त्रिशूल! से मोहनीय कर्म रूपी महासुर का नाश किया अथवा शुद्ध लेश्या के त्रिशूल से मोहरूप अन्धकासुर! का वध किया था । अथवा शुक्लध्यान के प्रथम तीन भेदों रूप त्रिशूल से मोहनीय, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, अन्तराय इन चार घातिया कर्मों रूप अन्धकासुर का नाश करके केवलदर्शन, केवल ज्ञान रूप अात्मस्वरूप को प्राप्त किया था। मोहनीय कर्म को ही वास्तव में अन्धक असुर (अन्धकासूर) की उपमा लागू पड़ती है। मोहनीय कर्म के मूल दो भेद हैं—दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय । दर्शन मोहनीय के उदय से अन्तर्चक्ष रूप सम्यग्दर्शन की जीव को प्राप्ति न होने से वह मिथ्यात्व के उदय से अन्धा कहा जाता है क्योंकि ऐसे प्राणी को वस्तु के सत्य स्वरूप के दर्शन नहीं होते और चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से जीव कुचारित्र रूप असुर से ग्रसित रहता है । इसलिए श्री ऋषभदेव ने रत्नत्रय रूप त्रिशूल के द्वारा दर्शन मोहनीय और चारित्न मोहनीय रूपी अन्धकासुर का नाश किया था । मोहनीय कर्म की २८ उत्तर प्रकृतियां (भेद) हैं।
इसी प्रकार शिव भी त्रिशूलधारी तथा अन्धकासुर के संहारक रूप २८ नर-कपालधारी माने जाते हैं । शिव की मूर्ति अथवा शिवलिंग के साथ त्रिशूल रहता है।
(८) कामदेव पर विजय :
श्री ऋषभदेव ने तपस्या करके कामदेव पर पूर्ण विजय प्राप्त की थी। शिव ने भी कामदेब का संहार किया था । क्या अन्तर है दोनों में ? (६) नीलकंठ :
देवताओं द्वारा समुद्र मंथन से प्राप्त विष का पान करकं शिव नीलकंठ कहलाये, और समुद्र के मंथन से प्राप्त अमृत का पान देवताओं को कराया ।
__श्री ऋषभदेव ने भी प्रात्ममंथन से प्रात्मस्वरूप रूप अमृत को प्राप्त कर उसे भव्य प्राणियों को उपदेशामत द्वारा पान कराकर दिव्यस्वरूप प्राप्त कराया, और स्वयं आत्मसाधनाकाल में अनेक प्रकार के परिषहों तथा उपसर्गों रूपी विष का पान करके समता तथा वीतरागता का परिचय दिया। (१०) नांदी (वृषभ-बैल) :
चौबीस जैन तीर्थंकरों के प्रत्येक को एक-एक प्रतीक चिह्न उनकी जंघा पर होता है। तीर्थकर प्रतिमाओं पर भी ये चिह्न अंकित रहते हैं । उन्हीं चिह्नों से किस तीर्थंकर की प्रतिमा है 1. दलिय-मयण-प्पयावा तिकाल विसएहि तीहिं णयणेहिं । दिट्ठ-सयलट्ठ-सारा सुदद्ध-तिउरा मुनि-वइणो ॥२४॥ ति-रयण-तिसूलधारिय मोहंघासुर-कबंध-विंद-हरा। सिद्ध-सयलप्परूवा अरहंता दुग्णय-कयंता ॥२५॥ (षट्खंडागम खंड १,१,१)
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