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________________ जैनधर्म की प्राचीनता और लोकमत नाभिस्त्वजनयत् पुत्रं मरुदेव्यां महामतिः । ऋषभं पार्थिवश्रेष्ठं सर्वक्षत्रस्य महामतिः ॥१६॥ ऋषभाद् भरतो जज्ञे वीरः पुत्रशताग्रजः । सोऽभिषिच्याथ ऋषभो भरत पुत्रवत्सलः ॥२०॥ ज्ञाने वैराग्यमाश्रित्य जित्वेन्द्रिय महोरगान् । सर्वात्मनात्मन्यास्थाप्य परमात्मानमीश्वरम् ॥२१॥ नग्नो जटो निराहारोऽचीवरो ध्वान्तगतो हि स: । निराशस्त्यक्त सन्देहः शैवमाप परमपदम् ॥२२॥ हिमाद्रेर्दक्षिणं वर्ष भरताय न्यवेदयत । तस्मात् भारतवर्ष वस्य नाम्ना विदुर्बुधाः ।।२३॥ अर्थात् --महामति नाभि को मरुदेवी नाम की पत्नी से ऋषभ नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। वह राजाओं में उत्तम था और सम्पूर्ण क्षत्रियों द्वारा सुपूजित था। ऋषभ से भरत की उत्पत्ति हुई जो अपने सौ भाइयों में बड़ा था । पुत्रवत्सल ऋषभदेव ने भरत को राज्यपद पर अभिषिक्त किया और स्वयं ज्ञान-वैराग्य को धारण कर इन्द्रियरूप महान् सर्यों को जोतकर सर्वभाव से ईश्वरपरमात्मा को अपनी आत्मा में स्थापित कर तपश्चर्या में लग गए। वे उस समय नग्न थे, जटाधारी, निराहार, वस्त्रहीन तथा मलिन थे। उन्होंने सब आशाओं (इच्छाओं) का त्याग कर दिया था। सन्देह का परित्याग कर दिया था और परम शिवपद (मोक्षपद) को प्राप्त कर लिया था। उन्होंने हिमवान (हिमालय) के दक्षिण भाग को भरत के लिए दिया था। उसी भरत के नाम से विद्वान इसे भारतवर्ष कहते हैं। अतः ऋषभदेव के सिर पर जटा-जट, सर्पो तथा, शिवपद की तुलना-शिव के गले और जटाजूट में लिपटे हुए सांपों से ऋषभ के उपसर्गों को बरदाश्त करने, मन और इन्द्रियों को वश में करने का परिचय और समता भाव के दर्शन होते हैं। तथा ऋषभ के मौक्षपद प्राप्त करने के कारण उन्हें शिव के रूप में अंकित किया गया है । अर्थात् ऋषभ को शिवरूप में पहचाना जाने लगा। (४) श्याम वर्ण शिव का श्याम वर्ण है। यद्यपि ऋषभ का स्वर्ण वर्ण है परन्तु तपस्या तथा अस्नान रहने के कारण मलिन गान होने से श्याम वर्ण दिखलाई देते थे। (५) त्रिनेत्र (तीन आंखें): शिव के तीन नेत्र बतलाये गये हैं। दो उनके चेहरे पर और तीसरा मस्तक पर । श्री ऋषभदेव के चेहरे पर प्राकृतिक दो नेत्रों के साथ उनका तीसरा नेत्र अन्तर्चक्ष केवल ज्ञान रूपी था । अथवा जिन्होंने तीनों कालों (भूत, भविष्य, वर्तमान ) तथा तीनों लोकों ऊर्ध्व, मध्य, अधो) को विषय केवलज्ञानार्जन करने रूपी तीन नेत्रों से सकल पदार्थों के सार को देख लिया है । ज्ञान मस्तिष्क का विषय होने से शिव के मस्तक में तीसरा नेत्र दिखलाया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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