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________________ मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म की विचारधारामों को षड्दर्शन में समावेश करके उनका समन्वय द्वारा सत्य स्वरूप का प्रतिपादन था। इसलिये उनका दूसरा पुत्र 'आगम' षण्मुख नाम से प्रसिद्ध हुआ। आगम द्वारा प्रमू ने धर्मपद की स्थापना की । आगम को दूसरा पुत्र मानने का यह कारण है कि वाणीरूप गिरा से अर्थरूप आगम उत्पन्न होकर उसका पोषण सूत्ररूप में गणधरों ने किया। इस प्रकार ऋषभ-देव, गणधर-गुरु और आगम-ज्ञान (धर्म) तीनों देव, गुरु, धर्म के नाम से प्रसिद्धि पाये। इसलिए भी शिव-ऋषभ को त्रिनेत्र कहा गया है। अतः --श्री ऋषभ-देव, २--गणधर आदि मुनि गुरु तथा ३ द्वादशांगवाणी का संकलनरूप आगम शास्त्र, इन तीनों का सर्वप्रथम प्रादुर्भाव श्री ऋषभ से हुआ । इसलिए भी ऋषभ त्रिनेत्र हैं। (१७) डमरू - शिव के हाथ में डमरू है जिसको बजाने से डिम-डिम नाद होता है। ऋषभ का अपनी दिव्य-ध्वनि नाद द्वारा भव्य जीवों को कल्याणकारी उपदेश देने का प्रतीक है। (१८) कैलाश-अष्टापद पर्वत श्री ऋषभदेव ने कैलाश (अष्टापद) पर्वत पर जाकर अनशनपूर्वक निर्वाण (शिवपद) प्राप्त किया था। शिव का धाम तथा तपस्या स्थान भी कैलाश माना जाता है। (१६) नासाग्रदृष्टि-शिव की भी नासाग्रदृष्टि है। योगीश्वर ऋषभदेव ध्यानावस्था में सदा नासाग्रदृष्टि रखते थे। (२०) पद्मासनासीन- श्री ऋषभदेव ने कैलाश (अष्टापद) पर्वत पर पद्मासन से ध्यानारूढ़ होकर शुक्लध्यान से मोक्ष प्राप्त किया । शिव भी पद्मासन में बैठे हुए दिखलाई पड़ते हैं। (२१) शिवरात्रि-श्री ऋषभदेव ने माघ कृष्णा त्रयोदशी की रात्रि को कैलाश (अष्टापद) पर्वत पर निर्वाण (मोक्ष) पद प्राप्त किया था। कैलाश पर्वत तिब्बत की पहाड़ियों पर स्थित है। लिंगपूजा का शब्द तिब्बत से ही प्रारंभ हुआ है। तिब्बती भाषा में लिंग का अर्थ इन्द्र द्वारा स्थापित तीर्थ अथवा क्षेत्र हैं। अतः लिंगपूजा का अर्थ तिब्बती भाषा में तीर्थ या क्षेत्र पूजा है। जैनागमों के अनुसार श्री ऋषभदेव के कैलाश पर्वत पर निर्वाण होने से नरेन्द्र (चक्रवर्ती भरत) तथा देवेन्द्रों द्वारा वहाँ आकर उनके पार्थिव शरीर का दाह संस्कार किया था, और उनकी चिता स्थानों पर देवेन्द्रों ने तीन स्तूपों का निर्माण किया, तथा चक्रवर्ती भरत ने उन स्तूपों के समीपस्थ क्षेत्र में श्री 1, श्री ऋषभ के गृहस्थावस्था में सौ पुत्र और दो पुत्रियां थीं। परन्तु दीक्षा लेने पर उन्होंने राजपाट-परिवार प्रादि सब परिग्रह का त्याग कर दिया था । इसलिए अर्हत् अवस्था में उनकी साधक अवस्था थी उस समय उनकी पुत्र (बेटे-बेटियां) आदि कोई संतान नहीं थी। शिव और ऋषभ की तुलना त्यागावस्था से ही की जा रही है। अत: यहां ऋषभ के कैवल्य के पश्चात् गणधर तथा आगम दो पुत्रों की तुलना की गई है। 2. जैनाचार्य जिनप्रभ सूरि ने अपने विविध तीर्थकल्प में कई जैन तीर्थों का लिंग के नाम से उल्लेख किया है। यथा सिंहपुरे पाताललिंगा भिधः श्री नेमिनाथः । अर्थात् पंजाब में सिंहपुर में पाताल लिंग (इन्द्र द्वारा निर्मित तीर्थक्षेत्र) नाम का नेमिनाथ का महातीर्थ है। (विविध तीर्थकल्प पृ० ८६ चतुरशिति भहातीर्थनाम संग्रह कल्प)। 3. It may be mentioned that linga is a Tibetan word of land. The Nor. thern most district of Bengal is called Darj-ling which means 'Thuderer's land, (इन्द्र द्वारा निर्मित क्षेत्र-तीर्थ) । (S, K. Roy pre-Historic Indian and Ancient Egypt P. 28) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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