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________________ बाबू कीर्तिप्रसाद जी ६०७ वकालत शुरू कर दी। उन दिनों मेरठ कचहरी की दशा अच्छी नहीं थी। आपने प्रयत्न करके वहीं Bar Association स्थापित की। आप वहाँ के Founder president रहे। उन दिनों Jain Students केलिये पढ़ाई करने की बहुत दिक्त थी, पापने वहां के दिगम्बर जैन समाज के सहयोग से (क्योंकि सारे जिले में एक प्रापका ही घर श्वेतांबर जैन मूर्तिपूजक था) जैन बोडिंग हाउस की स्थापना कराई। आप मेरठ म्युनिसिपल बोर्ड के भी अध्यक्ष रहे । उस समय तक शहर में बिजली नहीं थी पापने अपने समय में सड़कों पर रोशनी का प्रबंध व सफाई आदि के कार्य कराये । मेरठ से आप इलाहबाद में हाईकोर्ट के वकील हो गये। आप जो भी मुकदमा लेते थे उसे पापसी समझोते से तय कराने की कोशिश करते थे। आप झूठे मुकदमें लेने के बिलकुल खिलाफ थे। आप शुरु से ही धार्मिक प्रवृति के तथा नयाय पसंद रहे । सन् ई० १९२१ में पाप गाँधी जी के संपर्क में आये तथा उनके आह्वान पर आपने असहयोग आंदोलन में वकालत छोड़ दी एवं वापस विनोली प्रा गये । उन्हीं दिनों हमारे परमपुज्य प्राचार्य श्री विजयवल्लभ सुरीश्वर जी महाराज हस्तिनापुर तीर्थ की यात्रा हेतू विहार करते हुए बिनौली पधारे। आपके उपदेश से यहां भव्य जैन श्वेतांबर मंदिर के निर्माण का कार्य शुरु करा दिया गया। ई० १९२५ में प्राचार्य श्री की निश्रा में मंदिर जी की प्रतिष्ठा कराई गई जिसमें समस्त पंजाब से तथा बंबई आदि से जैनी पधारे । ग्राम बहुत छोटा था, माने जाने के साधन भी नहीं थे फिर भी वहाँ की प्रतिष्ठा प्राज भी लोगों को याद आती है। उसके बाद आप कांग्रेस का कार्य जोरों से करते रहे। ई० स० १९२४ (वि० स० १९८१) में जब गुजरांवाला में प्राचार्य श्री विजयवल्लभ सूरिजी ने श्री प्रात्मानन्द जैनगुरुकुल पंजाब की स्थापना की तब प्राचार्य श्री ने प्रापको गुरुकुल की सेवा करने के लिये फ़रमाया। गुरुदेव का प्रादेश पाते ही पाप ने गुरुकुल की निःशुल्क(मानद)सेवा करना स्वीकार कर लिया और अधिष्ठाता के पद से गुरुकुल की बागडोर को अपने हाथों में लेकर आप गूजराँवाला में गुरुकुल की सेवा में जुट गये। वि० सं० १९८१ से १९८८ तक निस्वार्थ भाव सेवा से आप ने गुरुकुल को उन्नति के शिखर पर पहुंचा दिया । अन्त में कार्यकारिणी से कतिपय मतभेदों के कारण प्रापने गुरुकुल से त्यागपत्र दे दिया और गुरुकुल की सेवा से निवृत्ति पाली। आप सेवाभावी, देशभक्त, जैनधर्म के दृढ़ श्रद्धालु, सरल स्वाभावी, मिलनसार तथा कुशल कानूनदान थे । नगर के सब लोग प्राप का बड़ा सम्मान करते थे । आपसी झगड़ों के पंच फैसले के लिये लोग आप के पास आते थे और जो आप फैसला देते थे वह सर्वमान्य होता था। आप का सारा जीवन सादा तथा देश, राष्ट्र एवं जैनशासन की सेवा में व्यतीत हुआ । आप सांप्रदायिक वाड़ाबन्दियों से बहुत दूर रहते थे। गांधीवादी विचारधारा में आपका दृढ़ विश्वास था । गुरुकुल के सेवा के अवसर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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