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________________ यति समुदाय ५४७ मंगल ऋषि (वि० सं० १८७१ में विद्यमान थे।) इनके शिष्य सोहन ऋषि (वि० सं० १८८० में विद्यमान थे), इनके शिष्य रामा ऋषि वि० सं० लगभग १६४५ तक विद्यमान थे। इन्होंने अनेक ग्रंथों की स्वहस्तलिखित प्रतिलिपियाँ तथा रचनाएं की थीं। इनके दो शिष्य यति राजऋषि तथा यति त्रिलोकाऋषि ने वि० सं० १९३६ ज्येष्ठ वदि ३० को जंडियाला गुरु में दीक्षाएं लीं। वि० सं० १९८८ प्र० २६ श्रावण को यति राजऋषि तथा वि० सं १९६१ प्र० २ प्राषाढ़ को यति श्री त्रिलोका ऋषि का जंडियाला गुरु में स्वर्गवास हो गया। इसके बाद जंडियाला गुरु की इस यति गद्दी पर कोई यति नहीं हुआ । इसलिये इनके निर्माण किये हुए उपाश्रय तथा मंदिर एवं इसके साथ जो जमीन जायदाद थी उन सब पर स्थानीय श्वेतांबर जैन मूर्तिपूजक संघ का अधिकार है और वही इनकी सार संभाल भी करता है । यद्यपि इन यतियों (पूज्यों) के उपाश्रय तथा मंदिर की स्थापना का समय आज जंडियाला गुरु का श्रीसंघ भी नहीं जानता तथापि इनकी स्थापना का समय लगभग विक्रम की १६ वीं शताब्दी का पहला चरण होगा। यति श्री राजऋषि, यति श्री त्रिलोकाऋषि इन दोनों गुरुभाइयों ने पंजाब के उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत में बन्नू, कोहाट, कालाबाग, लतम्बर प्रादि नगरों में अनेक चतुमसि किये हैं जहाँ पर इस काल में जैनसाधु-साध्वियों का विहार एकदम बन्द पड़ा था। अत: जंडियालागुरु की समाज पर तो इस यति परिवार का उपकार है ही, परन्तु पंजाब की उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत के जैनों पर भी कम उपकार नहीं था। आज भी जो जैन परिवार पाकिस्तान बनने के बाद भारत आये हैं वे उनके गुण गाते हैं । ये यति (पूज्य) लोग जैनशास्त्र ज्ञाता, चिकित्सा विज्ञान पारंगत, मंत्र-यंत्र-तंत्र, योगाभ्यास तथा ज्योतिष विद्या के पारदर्शी थे और बहुत चमत्कारी थे। सिरसा के यति मनसाचन्द्र जी ऋषि सिरसा में उत्तरार्ध लुकागच्छ के यतियों की गद्दी थी। श्री विजयानन्द सूरि के समकालीन तथा ढूढक मत से उनके साथ निकले हुए जिनका नाम संवेगी दीक्षा के बाद मुनि कमलविजयजी था, यति रामलाल जी के गुरुभाई प्रतापचन्द्रजी इस समय यहाँ के लुकागच्छ की गद्दी पर विद्यमान थे । उनके कई शिष्य थे, उनमें से यति मनसाचन्द्रजी भी थे । यति मनसाचन्द्र जी ने इस गद्दी का मोह अपने गुरुभाई केलिये छोड़कर सिरसा को छोड़ दिया और वि० सं० १९७६ के लगभग पंजाब में गुजरांवाला आदि नगरों में जिनशासन के प्रचार के लिये भ्रमण किया। विशेष कर गुजरांवाला मे अनेक चौमासे किये । यहाँ श्री प्रात्मानन्द जैन पाठशाला की स्थापना की। जिसमें महाजनी लिपि और पंजाबी भाषा में मुनीमी की शिक्षा तथा हिन्दी भाषा और जैनधर्म की शिक्षा दी जाती थी। इस पाठशाला में जैन जैनेतर सब जातियों के बच्चे निःशुल्क शिक्षा प्राप्त करते थे। यहां के विद्यार्थी पाँच वर्ष तक शिक्षा पा लेने पर महाजनी के बहीखातों के मुनीम (accountant) बन जाते थे और अच्छी-अच्छी फर्मों में एकाऊंटेण्ट की नौकरी पा जाते थे। यति श्री मनसाचन्द्र जी का तप और त्याग बड़ा उच्च था । यति होते हुए भी उन्हें लोभ छू नहीं पाया था। पाकिस्तान बनने से पहले ही प्राप मद्रास, उदयपुर आदि की तरफ विहार कर गये थे । सन् ईस्वी १६४८ (वि० सं० २००५) में आपका चतुर्मास मद्रास में था। इसके बाद आप फिर पंजाब में विचरे । आपका स्वर्गवास उदयपुर में हुआ। आप यतियों की सब विद्यानों में उच्चकोटि के विद्वान और चमत्कारी थे। वर्तमान में पंजाब में यतियों की गद्दियाँ एकदम समाप्त हो चुकी है । सारे पंजाब में किसी भी गच्छ का कोई यति नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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