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मध्य एशिया और पंजाब में जैनधम
परिग्रह का त्याग कर सर्वत्र अपने जिनप्रतिमा उत्थापक पंथ का प्रचार शुरु किया और वि० सं० १६०० के लगभग इनमें शिथिलता पाकर परिग्रहधारी मठधारी यति बन गये तथा उपाश्रयों का निर्माण कर उनमें गद्दि याँ कायम करके जिनमंदिरों का निर्माण, प्रतिष्ठा करके उनकी पूजा-सेवा स्वयं भी करने लगे और श्रावकों में उनका प्रचार भी करने लगे। दूसरा मत यह है कि भूणा जी आदि ४५ व्यक्तियों ने पूज (गद्दीधर यति) बनकर अपने सेंटर कायम किये और अपने पंथ का प्रसार करना प्रारंभ किया। इन लोगों ने जिनमूर्ति का उत्थापन नहीं किया था परन्तु मूर्ति की पूजा का विरोध किया था। क्योंकि लुकाशाह को इसके विधि-विधानों में हिंसा का आभास हुआ था (यद्यपि इस विधि-विधान में हिंसा नहीं है ऐसा हम पहले खुलासा कर पाये हैं)। यति लोगों को राजस्थान में 'गुराँसा' गुजरात में 'गोरजी' और पंजाब में पूज्य जी के नाम से संबोधित किया जाता था। इस पंथवाले साधु-साध्वियां मूर्तिपूजा का विरोध करते थे पर मुहपत्ति को मुख पर बाँधना प्रारंभ नहीं किया था। आगे चलकर यह लोग मूर्तिपूजा भी करने लगे।
वि० सं० १५३१ में इस पंथ की स्थापना होकर वि० सं० १५६० तक (तीस वर्षों के अंदर) ही इन लुकामतियों के यतियों की तीन-चार शाखायें हो गई।
भूणाऋषि की छठी पीढ़ी में गुजरात में सरवर ऋषि हुए। इनके दो शिष्य थे--१-रायमल्ल ऋषि, २-भल्लो ऋषि । ये दोनों अहमदाबाद से वि० सं० १५६० में पंजाब के लाहौर नगर में पाये और यहां प्राकर लाहोरी उत्तरार्ध लुकागच्छ के नाम से यतियों की गद्दी की स्थापना की। जिन प्रतिमानों को अपने उपाश्रय के एक कमरे में स्थापना भी की और विधिवत पूजा उपासना भी करने लगे। आगे चलकर एक ही शताब्दी के अन्दर इन लोगों के शिष्यों प्रशिष्यों ने पंजाब के अनेक नगरों में अपनी गद्दियाँ कायम कर ली और जिनमंदिरों का निर्माण तथा प्रतिष्ठाएं भी करवाई। गुजरात में सरवरजी के बाद प्रहमदाबाद में गुजराती लुकागच्छ की स्थापना इनके शिष्य रूपाजी ने की। इसी समय मध्यप्रदेश में नागौरी लौकागच्छीय तथा बड़ोदा प्रादि में भी इस पंथ के यतियों ने अपनी गद्दियाँ कायम की। राजस्थान में भी ऐसा ही हुमा । इससे स्पष्ट है कि भूणाजी प्रादि जिन ४५ व्यक्तियों ने इस पंथ की शुरुआत की थी वे अपरिग्रही साधु न होकर यति ही थे जिनके शिष्यों को अपनी गद्दियां कायम करने में तीस वर्षों में सफलता मिली।
पंजाब में सर्वप्रथम इस लुकागच्छ के रायमल्ल ऋषि तथा भल्लो ऋषि ये दो गुरुभाई आये । इनकी पट्टावली का विवरण हम पहले ही लिख आये हैं । यति रायमल्ल की नवीं पीढ़ी में श्री पूज्य (यतियों के प्राचार्य) श्री वर्द्धमान हुए । ये जंडियाला गुरु की यति गद्दी के आदि पुरुष माने गये हैं । ये वि० सं० १७७७ में विद्यमान थे। श्रीपूज्य वर्द्ध मान के शिष्य यति महासिंह ऋषि की श्रीपूज्य पदवी पट्टी जिला अमृतसर में हुई । उनके पश्चात यति जयगोपाल ऋषि की श्रीपूज्य पदवी होशियारपुर में हुई । इनके बाद यति विमलचन्द्र की श्रीपूज्य (प्राचार्य) पदवी वि० सं० १८७१ में पट्टी में हुई और वि० सं० १८८० में यति रामचन्द्र की श्रीपूज्य पदवी अमृतसर में हुई थी। इस गच्छ के सब यति इन श्रीपूज्यों की प्राज्ञा में रहते थे।
जंडियाला गुरु के यतियों की परम्परा इस गद्दी के उत्तराधिकारी यति श्री रामाऋषि ने इस प्रकार दी है। श्रीपूज्य आचार्य श्री वर्धमान ऋषि, तशिष्य लक्खु ऋषि (लखमी ऋषि उन के शिष्य राधु ऋषि, उनके शिष्य संतुऋषि, उनके शिष्य यति हरदयाल ऋषि, इनके शिष्य यति
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