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________________ यति ( पूज्य) समुदाय अभ्यास - चार प्रकरण, तीन भाष्य, छह कर्मग्रंथ, पंचसंग्रहादि सार्थ, विशेषावश्यक भाष्य, उत्तराध्ययन, प्रवचनसारोद्धार, तत्त्वार्थभाष्य, प्रशमरतिप्रकरण श्रादि ग्रंथों का धार्मिक अध्ययन; न्याय में तर्कसंग्रह, सम्मतितर्क, प्रमाण-नय-तत्त्वालोकालंकार, गुणप्रर्याय रास आदि; प्राकृत संस्कृत व्याकरण, काव्य, साहित्य आदि का ज्ञानार्जन किया है और आगे भी सतत अभ्यास चालू रहता है | नवपद ओली, उपवास, छठ, श्रट्ठम आदि नाना प्रकार के तप तथा वीसस्थानक यदि तप चालू रहते हैं । इस प्रकार ये छह साध्वियां ज्ञान तथा चारित्र की आराधना करते हुए स्व-पर कल्याण के लिए सदा प्रयत्नशील हैं । पुष्पाश्रीजी का स्वर्गवास हो चुका है । साध्वी श्री यशः प्रभाश्री तथा साध्वी श्री निर्मलाश्री जी महाराज जिनशासनरत्न शांतमूर्ति प्राचार्य श्री विजयसमुद्र सूरिजी महाराज की आज्ञानुवर्ती गुजराती साध्वी श्री यशःप्रभाश्री जी व साध्वी श्री निर्मलाश्री जी आदि ठाणा ७ ने वि० सं० १९७४ से १९७६ तक पंजाब में सर्वत्र विहार करके जिनशासन की प्रभावना की । यशःप्रभाश्री जी का स्वर्गवास वि० सं० १९७८ में जालंधर शहर (पंजाब) में हो गया । साध्वी श्री निर्मलाश्री जी परम विदूषी, ज्ञान चारित्र प्राराधना में सदा तत्पर रहती हैं । व्याख्यान शैली श्रोताओं के लिए रोचक एवं हृदयग्राही है | स्वभाव सरल और मिलनसार है । उपदेश आगमानुसारी तथा सरल हिन्दी भाषा में करती हैं। बहुत प्रयत्न करने पर भी इन साध्वियों के जीवन परिचय प्राप्त नहीं कर पाये । मालेरकोटला श्रीसंघ में कई वर्षों से वैमनस्य चल रहा था। जो बहुत प्रयत्न करने पर भी सुलझाया नहीं जा सका था । प्रापने मालेरकोटला में चतुर्मास करके चिरस्थाई वैमनस्य को दूर कराया और श्रीसंघ में चिरशांति स्थापित की । --:: यति ( पूज्य) समुदाय सारे पंजाब सिंध के बड़े-बड़े नगरों में पूज्यों की गद्दियाँ थीं और उनके द्वारा निर्मित जैन मंदिर तथा उपाश्रय भी थे। उनकी गद्दियों तथा मंदिरों के विषय में हम यथासंभव लिख प्राये हैं। बड़गच्छ, तपागच्छ, खरतरगच्छ, राजगच्छ, लाहौरी उत्तरार्द्ध लुकागच्छ के यतियों का इस क्षेत्र पर बहुत उपकार रहा है। यहाँ पर एक दो पूज्यों का संक्षिप्त परिचय देकर ही सन्तोष मानेंगे | यति राजऋषि व त्रिलोकाऋषि १ - जडियाला गुरु (श्रकालदास का ) हम लिख आये हैं कि अहमदाबाद (गुजरात) में लुक शाह लिखारी ( ग्रंथलिपिकार ) तपागच्छीय मुनि श्री सुमतिविजय जी के पास शास्त्रों की प्रतिलिपियाँ किया करते थे । मुनिराज से कुछ मतभेद हो जाने के कारण उसने वि० सं० १५०८ में जिनप्रतिमा की मान्यता का उत्थापन किया । वि० सं० १५३१ को अहमदाबाद में ४५ व्यक्तियों के सहयोग से अपने नये पंथ की स्थापना की । इन ४५ व्यक्तियों ने स्वयमेव भूणाजी के नेतृत्व में इस नये पंथ की साधुवेश में दीक्षाएं ग्रहण कीं । इनके प्रचार के विषय में इस पंथ के अनुयायियों द्वारा दो मत पाये जाते हैं । एक मत तो यह है कि इन ४५ व्यक्तियों ने पाँच महाव्रत धारण करके जैन श्रमण के समान ही सर्व Jain Education International ५४५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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