SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 566
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मुनि श्री चन्दनविजय ५१६ थोक करियाणे का व्यापार करते थे । लाला बाबूराम जी की पत्नी श्रीमती प्रसादेवी की कुक्षी से दो पुत्रों तथा एक पुत्री का जन्म हुआ १. श्री गुज्जरमल, २. श्री लालचन्द तथा श्रीमती कमलावन्ती । श्री लालचन्द का जन्म वि० सं० १९६० में हुआ । वि० सं० २००७ (१७ वर्ष की आयु में गुजरांवाला निवासी श्री रलाराम मुन्हानी की पुत्री महिमावन्ती के साथ विवाह हुआ । इससे छह सन्तानें हुईं - १. पुत्री उषारानी २. पुत्र प्रेमचन्द, ३. पुत्री मधुबाला, ४. पुत्री प्रवीणकांता ५. पुत्र मंगतराय और ६. पुत्री सरोजबाला । लालचन्द के पिता का स्वर्गवास वि० सं० २००७ में और माता का देहांत वि० सं० २०११ में हो गया था । वि० सं० २०१७ में लालचन्द अपने परिवार के साथ लुधियाना आ गया | यहाँ स्टैपल कपड़े का व्यापार किया । लालचन्द को पच्चीस वर्ष की प्रायु (वि० सं० २०१५ ) में संसार से वैराग्य होगया और धार्मिक ग्रंथों का स्वाध्याय करने लगा, इससे उत्तरोत्तर वैराग्य भावना को बल मिलता गया । लुधियाना में महिमावती ने दो वर्षीतप किये, इससे इसे भी संसार से वैराग्य हो गया । अब दोनों ने पुत्र मंगतराय पुत्री प्रवीणकांता तथा पुत्री सरोजबाला को साथ में लेकर दीक्षा लेने का निश्चय किया । लुधियाना श्रीसंघ ने ग्राप पांचों को ई० सं० १९७० ता० १४ जून को बड़े उल्लास पूर्वक बाजे गाजे के साथ विदा किया। सब आगरा में आये । यहाँ प्राचार्य श्री विजयसमुद्र सूरि जी के समुदाय की साध्वी श्री पुष्पाश्री जी से महिमावन्ती, प्रवीणकांता तथा सरोजबाला ने दीक्षा लेकर साध्वीधर्म स्वीकार किया । महिमावन्ती का दीक्षा लेने के बाद दीप्तिश्री नाम हुआ । श्री लालचन्द अपने पुत्र मंगतराय को अपने साथ लेकर प्राचार्य श्री विजयसमुद्र सूरि जी महाराज के पास बम्बई पहुंचे । कुछ मास गुरुदेव की निश्रा में रहकर उनकी आज्ञा से पंन्यास बलवन्तविजय का शिष्य होना स्वीकार किया । पंन्यास बलवन्तविजय जी बालकेश्वर जी बम्बई में आगमप्रभाकर पुण्यविजय जी तथा आचार्य हेमसागर जी के पास आप दोनों को ले गये और वहाँ वैसाख सुदि १३ संवत् विक्रमी २०२८ को उन्हीं से दीक्षित करवा कर पंन्यास जी ने लालचन्द को अपना शिष्य बनाया और इनका नाम मुनि हेमचन्द्रविजय रखा और मंगतराय को दीक्षा देकर मुनि यशोभद्रविजय जी नाम रखकर हेमचन्द्र विजय का शिष्य बनाया | मुनि चन्दन विजय जी खिवाई गाँव जिला मेरठ (उत्तरप्रदेश) के अग्रवाल गोयल गोत्रीय लाला रायमलदास के पुत्र चन्दनलाल ने १८ वर्ष की आयु में ऋषि गुलजारीमल स्थानकमार्गी साधु से ली थी। ढूंढक साधु अवस्था में इसका नाम पूर्ववत ही रहा । वि० १६२४ को दोनों गुरु-शिष्य ने रामनगर (पंजाब) में पूज्य बुद्धिविजय (बूटेराय ) जी से संवेगी दीक्षा ग्रहण की। ऋषि गुलजारीमल का नाम मुनि मोहनविजय रखा और बुद्धिविजय जी ने अपना शिष्य बनाया और ऋषि चन्दनलाल को दीक्षा देकर उसे मोहनविजय का शिष्य बनाया। नाम मुनि चन्दनविजय रखा। मुनि चंदनविजय जी का स्वर्गवास १०५ वर्ष की आयु में लुधियाना (पंजाब) में हुआ । श्राप अधिकतर पंजाब में ही विचारे और अनेक जैनमंदिरों की प्रतिष्ठाएं कराईं । इनका शास्त्रभंडार खिवाई में लाला ऋषभदास श्वेतांबर जैन अग्रवाल के पास सुरक्षित है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy