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जैनधर्म की प्राचीनता और लोकमत
"महषिः तस्मिन्नव विष्णुदत्तः भगवान परमषिभिः प्रसादितः नाभेः प्रिवचिकीर्षया तदवरोघांयने मरुदेव्याधमान् दर्शयितुकामो वातरशनानां श्रमणः नामृषीणामूर्ध्वमंथिनां शुक्लया तनुवावतार ॥ (५।३।२० भागवत)।
अर्थात्--हे परीक्षित ! उस यज्ञ में महर्षियों द्वारा इस प्रकार प्रसन्न किये जाने पर भगवान महाराज नाभि का प्रिय करने के लिये उनके अन्तःपुर में महारानी मरुदेवी के गर्भ से वातरशना (योगियों)श्रमणों और उर्ध्वगामी मुनियों का धर्म प्रकट करने के लिये शुद्ध सत्वमय शरीर से प्रकट हुए।
श्रीमद्भागवतकार ने ही लिखा है कि यद्यपि ऋषभदेव परमानन्दस्वरूप थे, स्वयं भगवान थे फिर भी उन्होंने गृहस्थाश्रम में नियमित आचरण किया। उनका पह आचरण मोक्षसंहिता के विपरीतवत लगता है, किन्तु वैसा था नहीं। यथा
"भगवान् ऋषभसंज्ञ आत्मतन्त्रः स्वयं नित्यनिवृत्तानर्थपरम्परः केवलानन्दानुभवः ईश्वर एवं विपरीतवत् कर्मारण्यारभ्यमानः कालेनानुरातं धर्ममाचरेणापंशिक्षयन्नतद्विदां सम उपशांतो मैत्रः कारुणिको धर्मार्थ यशः प्रजानन्दामृतावरोधेन गृहेषु लोक नियमयत् ।" (भागवत् ५।४।१४)
अर्थात् — भगवान ऋषभदेव यद्यपि परम स्वतंत्र होने के कारण स्वयं सर्वदा ही सब प्रकार की अनर्थ परम्परा से रहित केवल प्रानन्दानुरूप स्वरूप और साक्षात् ईश्वर ही थे तो भी विपरीतवत प्रतीत होने वाले कर्म करते हुए उन्होंने काल के अनुसार धर्म का आचरण करके उसका सत्व न जानने वालों को उसी की शिक्षा दी। साथ ही सम (मैत्री) शांत (माध्यस्थ) सहद (प्रमोद) और कारुणिक (कृपापरत्व) रहकर धर्म, अर्थ, यश, सन्तान रूप भोग सुख तथा मोक्ष सुख का अनुभव करते हुए गृहस्थाश्रम में लोगों को नियमित किया।
आविर्भतानन्तज्ञान-दर्शन-सुख-वीर्य-विरति-क्षायिक-सम्यक्त्व-दान-लाभ - भागोपभोगाद्यनन्त गुणत्वादिहैवात्मसात्कृतसिद्ध-स्वरूपा: स्फटिक-मणि महीधर-गर्भोद्भूतादित्य-बिम्बवदैदीप्यमानाः स्व- शरीर-परिमाणा अपि ज्ञानेन व्याप्त विश्वरूपाः स्वस्थिताशेषप्रमेयत्वतः प्राप्त विश्वरूपाः निर्गताशेषामयत्वतो निरामयाः विगतशेषपायांजनपुञ्जत्वेन निरंजना: दोषकलातीतत्वतो निष्कलाः । तेभ्योऽर्हद्भ्यो नमः ।। अर्थात्--अनन्त ज्ञान, अनन्त-दर्शन, अनन्त-सुख, अनन्त-वीर्य, अनन्त-विरति, क्षायिक-सम्यक्त्व, क्षायिक-दान, क्षायिक-लाभ, क्षायिक-भोग, क्षायिक-उपभोग आदि प्रगट हुए अनन्त गुणस्वरूप होने से जिन्होंने यही पर सिद्ध स्वरूप प्राप्त कर लिया है, स्फटिकमणि के पर्वत के मध्य से निकलते हुए सूर्यबिम्ब के समान जो देदीप्यमान हो रहे हैं, अपने शरीर प्रमाण होने पर भी जिन्होने अपने ज्ञान के द्वारा सम्पूर्ण विश्व को व्याप्त कर लिया है। अपने (ज्ञान) में ही सम्पूर्ण प्रमेय रहने के कारण (प्रतिभासित होने से) जो विश्वरूपता को प्राप्त हो गए हैं, सम्पूर्ण आमय अर्थात् रोगों से दूर हो जाने के कारण जो निरामय हैं. सम्पूर्ण पाप रूपी अजन के समूह के नष्ट हो जाने से जो निरंजन हैं और दोषों की कलाएं अर्थात् सम्पूर्ण दोषों से रहित
होने के कारण जो निष्कल हैं, ऐसे उन अहंतों को नमस्कार हो। (धवला टीका १,१,१.) 2. जैनाचार्य हेमचन्द्र ऋषभदेव के विवाह प्रसंग का वर्णन करते हुए कहते हैं कि ऋषभदेव ने लोगों में विवाह
प्रवृत्ति चालू रखने के लिए विवाह किया। वे कहते हैं कि सुनंदा को स्वीकार कर उसका अनाथपन दूर किया, ऋषभ ने दो विवाह एक साथ किए थे। एक सुमंगला के साथ जो उनके साथ युगल रूप में जन्मी थी तथा दूसरी जिसके साथ उसका युगलरूप में जन्मा हुअा भाई था, उसकी आठ वर्ष की अवस्था में मृत्यु हो जाने के कारण अकेली रह जाने से अनाथ हो गई थी, ऐसी सुनन्दा के साथ विवाह किया । इन दोनों से दो पुत्रियों तथा सौ पुत्रों का जन्म हुआ।
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