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मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म
यह सत्य है कि उनके सुन्दर सुडोल शरीर, विपुल कीर्ति, अतुल तेज-बल, यश, ऐश्वर्य, पराक्रम और शौर्यादि गुणों के कारण नाभि राय ने उनका नाम ऋषभ रखा था । ऋषभ का एक अर्थ धर्म भी है। ऋषभदेव साक्षात् धर्म ही थे। उन्होने स्वयं कहा-- मेरा यह शरीर दुर्विभाव है अर्थात् शारीरिक आचरणायें सब की समझ में नहीं आ सकतीं। मेरे हृदय में सत्व का निवास है, वही धर्म की स्थिति है । मैंने धर्मस्वरूप होकर अधर्म को पीछे धकेल दिया है, अतएव मुझे आर्य लोग 'ऋषभ' कहते हैं । यथा
"इदं शरीरं मम दुविभाव्यं, सत्त्वं ही मे हृदयं यत्र धर्मः ।
पृष्टे कृतो मे यदधर्म आराधतो ही मां ऋषभं प्राहुरार्याः ।। (भागवत २५६) एक स्थान पर परीक्षित ने कहा है--हे धर्मतत्त्व को जानने वाले ऋषभदेव ! आप धर्म का उपदेश कर रहे हैं। अवश्य ही आप वृषभ रूप में स्वयं धर्म हैं। अधर्म करने वाले को जो नरकादि स्थान प्राप्त होते हैं, वे ही आपकी निन्दा करने वाले को मिलते हैं । यथा--
"धर्मबृवीषी धर्मज्ञ धर्मोसि वृषभ रूप धृक् ।
यदधर्मकृत: स्थानं सूचकस्यापि तद्भवेत ॥" (भागवत १।११।२२) भगवान ने धर्म का उपदेश दिया क्योंकि वे स्वयं धर्मरूप थे। तीर्थ का प्रवर्तन किया क्योंकि वे स्वयं तीर्थंकर थे, यह सब कुछ सत्य है किन्तु उन्होंने प्रजा को संसार में जीने का उपाय भी बताया। उन्होंने सबसे पहले क्षात्रधर्म की शिक्षा दी। महाभारत के शांतिपर्व में लिखा है कि- क्षात्रधर्म भगवान आदिनाथ से प्रवृत हुआ और शेष धर्म उसके पश्चात् प्रचलित हुए। यथाक्षात्रो धर्मो ह्यादिदेवात् प्रवृत्तः । पश्चादन्ये शेषभूताश्च धर्म ॥"
(महाभारत शांतिपर्व १६१६४।२०) ब्रह्माण्ड पुराण (२।१४) में प्रार्थिवश्रेष्ठ ऋषभदेव को सब क्षत्रियों का पूर्वज कहा है।
१- प्रजाओं का रक्षण क्षात्रधर्म है, अनिष्ट से रक्षा तथा जीवनीय उपायों से प्रतिपालन ये दो गण प्रजापति ऋषभदेव में विद्यमान थे। उन्होंने स्वयं दोनों हाथों में शस्त्र धारण कर लोगों को शस्त्रविद्या सिखाई। शस्त्र शिक्षा पाने वालों को क्षत्रिय नाम भी प्रदान किया। क्षत्रिय का अन्तनिहित भाव वही था कि जो हाथों में शस्त्र लेकर दुष्टों और सबल शत्रुओं से निर्बलों की रक्षा करते हैं । उन्होंने मात्र शस्त्र विद्या की शिक्षा ही नहीं दी अपितु सर्वप्रथम क्षत्रिय वर्ण की स्थापना भी की थी।
ऋषभदेव का यह वचन अधिक महत्वपूर्ण है कि केवल शत्रुनों और दुष्टों से युद्ध करना ही क्षात्रधर्म नहीं है अपितु विषय, वासना, तृष्णा और मोह आदि जीतना भी क्षात्रधर्म है । उन्होंने दोनों काम किये। शायद इसी कारण आज क्षत्रियों को अध्यात्म विद्या का पुरस्कर्ता माना जाता है । जितना और जैसा युद्ध बाह्य शत्रुओं को जीतने के लिये अनिवार्य है, उससे भी अधिक मोहादि अन्तशत्रुनों को जीतने के लिए अनिवार्य है । ऋषभदेव ने सारी पृथ्वी-समुद्रों पर राज्य किया, सारे विश्व को व्यवस्थित किया और फिर मोहादि शत्रुओं का विनाश करने में भी विलम्ब नहीं किया। प्राचार्य समन्तभद्र ने नीचे लिखे श्लोक में बड़ा ही भाव-भीना वर्णन किया है
विहाय यः सागर-वारि-वाससं वधूमिवेमां वसुधा वधूं सतीम् । मुमुक्षुरिक्ष्वाकु कुलादिरात्मवान् प्रभु प्रवाज सहिष्णुरच्युतः ॥ (स्वयंभू स्तोत्र १।३)
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