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जैनधर्म की प्राचीनता और लोकमत
(११) डा० श्री रामधारी सिंह दिनकर का मत है कि
कई विद्वानों का यह मानना अयुक्ति-युक्त नहीं दीखता कि ऋषभदेव वेदों के लिखने के काल से भी पूर्वकाल में हुए हैं ।।
(१२) डा० राधाकृष्णन भूतपूर्व राष्ट्रपति भारतवर्ष का मत है कि
इसमें कोई संदेह नहीं है कि ईसा से एक शताब्दी पहले से ही ऐसे लोग विद्यमान थे जो प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की पूजा करते थे । तथा यह बात भी निःसंदेह है कि जैन धर्म महावीर और पार्श्वनाथ से भी पहले विद्यमान था। यजुर्वेद में तीन तीर्थ करों के नामों का उल्लेख हैऋषभ, अजितनाथ, अरिष्टनेमि । भागवत पुराण में वर्णन है कि ऋषभदेव जैनधर्म के संस्थापक
(१३) एम० एम० डा० एस० सी० विद्याभूषण कहते है कि
मानव सभ्यता के प्रारम्भ काल से ही भारत ने विश्व की जनता को सदा आध्यात्म माता की देन दी है। वास्तव में कहा जाय तो यदि विश्व में भारत अध्यात्मवाद और तत्वज्ञान के विस्तार करने से अद्वितीय सिद्ध हुपा है तो इस बात के लिए कोई इन्कार नहीं कर सकता कि इसका श्रेय जैनधर्म को ब्राह्मण और बौद्ध धर्म से कोई कम नहीं है । पुनश्च अन्य धर्मों से जैनधर्म एक प्राचीन, सुप्रतिष्ठित, तेजस्वी और महाधर्म है।
(१४) सर षणमुखम चेटी कहते हैं कि ----
It is beyond my capacity to say any thing about the greatness of the Jain religion. I have read sufficiently to warrant my saying that contribution which the Jains have culture is something unique. I personally believe that if only Jainism had kept its hold firmly in India, we would perhaps have had a more united India and certainly a greater India than today. Viewed as a religion the keynote of Jainism have been the realisation of the highest ideals that man's physical and moral nature points out as his final goal and which incidentally is the cardial canon of Univarsalism
The Pali Sutras confirm good deal of what is contained in the Swetambera Jain canon. The ancient Jain sculptures of Mathura, dating from the first century A.D. guarantee the antiquity and authenticity of many of the Jain tradition. It is generally believed that there were Jain monks before Mahaveera belonging to the order founded by Parswanath.......... They had also their own Caityas (चैत्य)
(१५) प्रो० रामप्रसाद चाँदा जो प्रसिद्ध पुरातत्त्वज्ञ हैं, वे कहते हैं कि
जैन सिद्धांतों की विशेषकर इसके स्याद्वाद सिद्धांत की ब्राह्मण तत्त्वज्ञानियों, ख्याति प्राप्त विद्वानों ने जैसे कि बाद्रायन (वेदांत सूत्र) तथा शंकराचार्य ने खूब अनुचित पालोचना की है।
(१६) जे० एन० झा० का कहना है कि शंकराचार्य ने न तो स्याद्वाद के वास्तविक रूप को समझा है और न कभी समझने का प्रयत्न ही किया है । (आर्य समाज के संस्थापक) स्वामी दयानन्द ने अपने सत्यार्थप्रकाश (अध्याय १२) में एवं होप्किन ने अपने (Religions in India) नामक पुस्तक में कुछ अाधुनिक उदाहरण रूप वैसे ही जैनधर्म को गलत और गुमराह करने काली आलोचनाएं की हैं ।
1. संस्कृति के चार अध्याय बृष्ठ २६ 2. इंडियन फिलासफी
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