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________________ ४३२. मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म प्राचार्य श्री विजयललित सरि गुजगंवाला (पंजाब) नगरी के निकट पश्चिम दिशा में लगभग छह मील की दूरी पर भखड़ियांवाली नामक छोटे से गांव में स्वर्णकार श्री दौलत राम के घर वि० सं० १९३७ कार्तिक शुक्ला १ के दिन लक्ष्मणदास का जन्म हुमा। श्री दौलतराम वैष्णव धर्मानुयायी थे। इनके परम मित्र जैनश्रावक भगत लाला बुड्ढामल जी ओसवाल भावड़ा दूगड़ गोत्रीय थे। बालक लक्ष्मण की अल्पावस्था में ही इस के पिता का देहांत हो गया था। अपनी मृत्यु के कुछ समय पहले ही उन्हों ने अपने मित्र भगत जी को बुला कर कहा कि भगत जी ! अब मैं संसार से विदा ले रहा हूं। यह मेरा इकलौता बेटा पाप को धरोहर रूप में सौंपता हूं इसे संभालना । लक्ष्मण की माता का देहांत तो पहले ही हो चुका है। अब मेरा भी साया इसके सिर पर से उठ रहा है, अब यह तुम्हारा ही पुत्र है, इस अनाथ को सनाथ करो। इस का मानव जीवन सफल हो जावे ऐसा करना।" भगत जी बाल ब्रह्मचारी थे, आप की जिनेन्द्र भक्ति प्रशंसनीय थी । सामायिक, प्रतिक्रमण, पूजा आदि शुभ धर्म क्रियानों को उत्साह पूर्वक करते थे। बालक लक्ष्मण भी धर्मक्रियानों में रस लेने लगा। वि० सं० १९५३ में श्री विजयवल्लभ सूरि जी (वल्लभविजय जी) पंजाब में गुजरांवाला नगर में विराजमान थे। भगत जी भी लक्ष्मण को साथ में लेकर गुरुदेव के दर्शनार्थ आये। उस समय उपाश्रय में व्याख्यान चल रहा था । धर्म अधर्म के स्वरूप का वर्णन हो रहा था । लक्ष्मण एक टक होकर एकाग्रतापूर्वक सुन रहा था । इस प्रकार अनेक दिनों तक व्याख्यान सुनता रहा । गुरुदेव की वाणी ने लक्ष्मण पर जादू का असर किया और संसार को असार जान कर गुरुदेव से भागवती जैनसाधु की दीक्षा लेने का दृढ़ निश्चय कर लिया। वि० सं० १९५४ वैसाख शुक्ला ८ के दिन प्राचार्य श्री विजयवल्लभ सूरि ने लक्ष्मण को उस की १७ वर्ष को प्रायु में नारोवाल जिला स्यालकोट में दीक्षा देकर अपना शिष्य बनाया और नाम ललितविजय रखा। दीक्षोपरांत मुनि ललितविजय जी ज्ञान साधना में लीन हो गये। आप ने संस्कृत में व्याकरण, काव्य, अलंकार, साहित्य, न्याय प्रादि विविध विषयों का अभ्यास किया। प्राकृत में व्याकरण, आगमों आदि, प्रकरणों में जीव विचार, नवतत्व दंडक, संग्रहणी, तीनभाष्य, कर्म ग्रंथों आदि अनेक विषयों का अभ्यास कर ज्ञान में प्रोढ़ता प्राप्त की। पंजाब से लेकर बम्बई, पूना तक गुरुदेव के साथ तथा अलग विचर कर धर्मोपदेश, धर्मामृत से जनता जनार्दन का कल्याण करते रहे। पदवी प्रदान पाप गुरुदेव के परम भक्त थे इस लिये वि० सं० १९८१ में श्री गुरुदेव को लाहौर में आचार्य पदवी, मुनि सोहन विजय जी को उपाध्याय पदवी दी गई, आप को गुरुभक्त की पदवी से अलंकृत किया गया। उस समय गुरुदेव लाहौर (पंजाब) में विराजमान थे और आप वीलेपारले (बम्बई) में विराजमान थे। वि० सं० १९७५ में बाली नगरी (राजस्थान) में आप को पंन्यास पदवी से विभूषित किया गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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