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________________ श्री विजयकमल सूरिं ४६१ ५४. श्री सुमतिसाधु सूरि ६४. श्री क्षमाविजय ५५. ,, हेमविमल सूरि ६५. ,, जिनविजय ५६ , मानन्दविमल सूरि ६६ ,, उत्तमविजय ५७. ,, विजयदान सूरि ६७. ,, पद्मविजय ५८. ,, जगद्गुरु श्री हीरविजय सूरि [सम्राट ६८. ,, रूपविजय ___ अकबर प्रतिबोधक] ६६. ,, कीर्तिविजय ५६. ,, विजयसेन सूरि ७०. , कस्तूरविजय ६०. , विजयदेव सूरि देवसूर संघ] ७१. , गणि श्री मणिविजय (दादा) ६१. ,, विजयसिंह सूरि ७२. , गणि श्री बुद्धिविजय [सद्धर्म संरक्षक] ६२. ,, सत्यविजय गणि [आपके समय में वि० ७३. ,, न्यायांभोनिधि श्री विजयानन्द सूरि सं० १७०६ में लवजी नामक लुंकामति 1 [वीरचन्द राघवजी गांधी को जैनधर्म साधु ने ढूंढक मत की स्थापना कर सर्व के प्रचार के लिये अमरीका आदि विदेशों प्रथम मुख पर मुंहपत्ति बांधी। आपने में भेजा]] इसी वर्ष संवेगी साधुनों में पीली चादर ७४. , विजयवल्लभ सूरि [पंजाब केसरी] का प्रचलन किया] ७५. ,, विजयसमुद्र सूरि [जिन शासन रत्न] ६३. , कपूरविजय ७६. ,, विजय इन्द्रदिन्न सूरि प्राचार्य श्री विजयकमल सूरि यति श्री रामलालजी उत्तरार्ध लौकागच्छ के यति प्रतापचन्दजी के गुरुभाई थे । ब्राह्मण जाति में जन्म लेकर आपने सिरसा (पंजाब) में यति दीक्षा ग्रहण की और यहाँ की उत्तरार्ध लौंका. गच्छ की गद्दी के उत्तराधिकारी बने। आपने ऋषि विशनचन्दजी से ढूंढक साधु की दीक्षा ली और परिग्रह के त्यागी बने । जब श्री विजयानन्द सरि (आत्माराम) जी ने १५ साधुओं के साथ ढूंढक मत का त्यागकर अहमदाबाद में मुनि श्री बुद्धिविजय (बूटे राय) जी से संवेगी दीक्षा ग्रहण की तब आप भी उन १६ साधुओं में एक थे। संवेगी दीक्षा लेने पर आपका नाम मुनि कमल विजय जी रखा गया और आपको मुनि श्री लक्ष्मीविजय (विशनचन्द) जी का शिष्य ही बनाया गया। आप आचार्य श्री विजयानन्द सूरिजी के साथ ही प्राचीन जैनधर्म के संरक्षण में जुट गये । आपको गुजरात में आचार्य पदवी दी गई, तब आपका नाम आचार्य श्री विजयकमल सूरि जी हुआ । प्राप श्री विजयानन्द सूरि के समाधिमंदिर की गुजरांवाला पंजाब में वि० सं० १६६५ में प्रतिष्ठा कराने के बाद पंजाब से गुजरात चले गये और पुनः पंजाब लौटकर नहीं आये। आपने अपने दो पट्टधर प्राचार्य स्थापित किये । वि० सं० १९८१ में अपने शिष्य मुनि श्री लब्धिविजय जी तथा उपाध्याय वीरविजय जी के शिष्य मुनि दानविजय जी को गुजरात में प्राचार्य पद पर प्रतिष्ठित करके अपने पट्टधर घोषित किया। इन दोनों के नाम क्रमशः आचार्य श्री विजयलब्धि सूरि तथा प्राचार्य श्री विजयदान सूरि जी रखे । आपका शिष्य-प्रशिष्य परिवार गुजरात में ही विचर रहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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