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________________ ४६ मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म वि० सं० २०२६ में स्व. प्राचार्य श्री विजयवल्लभ सूरि जी के जन्म शताब्दी महोत्सव के अवसर पर प्राचार्य श्री विजयसमुद्र सूरि जी ने आपको बम्बई में बुला लिया और इस बर्ष का चतुर्मास भायखला बम्बई में आपने प्राचार्य श्री के साथ ही किया तथा जन्म शताब्दी महोत्सव को सफल बनाने के लिए आपने पूरा-पूरा सहयोग दिया । शताब्दी के बाद बरली (बम्बई) में प्रभु प्रतिमा की प्रतिष्ठा के अवसर पर वि० सं० २०२७ माघ वदि ५ को प्रापको प्राचार्य पदवा से विभूषित किया गया। पश्चात् प्राचार्य श्री की आज्ञा से आप पुन: बोडेली पधारे। वहाँ पुनः धर्मप्रचार करके परमार क्षत्रिय जैनों को धर्म का दृढ़ संस्कारी बनाया । प्राचार्यश्री ने बड़ौदा में प्रापको पुनः अपने पास बुला लिया और चतुर्मास भी उन्हीं के साथ किया। पश्चात् विहार करते हुए पूना पधारे । चतुर्मास के बाद सब मुनिमंडल विहार करने वाला था कि श्री विजय समुद्र सूरिजी एकदम सख्त बीमार हो गये। जीने की प्राशा छूट चुकी थी। तब अपनी ऐसी अस्वस्थ दशा को देखकर आचार्यश्री ने पोष सुदि ११ वि० सं० २०२८(ता० १३-१२-१९७१) की रात के समय मुनि वल्लभदत्तविजय द्वारा अपने समुदाय के समस्त साधु-साध्वियों को आदेश दिया कि "जिन्दगी का क्षण भर भी भरोसा नहीं रहा, इसलिये यह प्राज्ञा रूप से कहा जाता है कि (१) मेरे पश्चात् उपाध्याय, पंन्यास, गणिवर्य तथा मुनिमंडल व साध्वी मंडल को चाहिये कि आचार्य श्रीमद् विजय इन्द्रदिन्न सूरिजी महाराज की आज्ञा का पालन करें। यह आज्ञा गुरुदेव (विजयवल्लभ सूरिजी) के समुदाय के जितने भी साधु-साध्वियाँ हों उन सबके लिये हैं । (२) पीली चादर धारण करते रहें। (३) संक्रान्ति मनाने का रिवाज चालू रखना। पंजाब में विचरें तब अथवा पंजाबी भाई अन्य प्रांतों में प्रावें तब जहाँ अपने साधु-साध्वियां विद्यमान हों उन्हें संक्रन्ति का स्मरण अवश्य करावें । सब साधु साध्वियां हिल-मिल कर मेलजोल के साथ सगे भाई बहनों के समान संगठित होकर रहें और गुरु महाराज के नाम को रोशन करे । यह सच ना पंजाब के लिये भी की जाती है।" आशय यह है कि प्रापको विजयसमुद्र सूरिजी ने अपना पट्टधर घोषित कर चतुर्विध संघ को आपकी आज्ञा पालन करने पर आपको पंजाब की सार-संभाल करने का आदेश दिया। गुरुदेव के स्वस्थ हो जाने पर सब मुनिराजों के साथ आपने भी पूना से पंजाब के लिये विहार कर दिया। वि० सं० २०३१ (वीर निर्वाण सं० २५०१) को महावीर निर्वाण २५वीं शताब्दी को महोत्सव में आपने गुरुदेव का पूरा-पूरा साथ दिया। दिल्ली के इस चतुर्मास के बाद गुरुदेव और मुनिमंडल के साथ आप भी पंजाब में पधारे और गुरुदेव के स्वर्गवास तक आप उन्हीं के साथ रहे। श्री हस्तिनापुर में पारणा तथा कल्याणक मंदिर की प्रतिष्ठा मुरादाबाद में गुरुदेव का स्वर्गवास हो जाने के बाद मुनिमंडल के साथ प्रापने प्रागरा के बालुगंज में चौमासा किया। चतुर्मास के बाद आप हस्तिनापुर पधारे वहाँ पर नवनिर्मित जैनमंदिर जिसमें श्री ऋषभदेव जी के वर्षोयतप के पारणे की प्रतिमाएं तथा श्रीशांतिनाथ, कुंदुनाथ, अरनाथ तीनों तीर्थंकरों के चार-चार (च्यवन, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान) कल्याणकों के तथा पारणे की घटनाओं के शिलापट्टों की प्रतिष्ठा वि० सं० २०३५ वैसाख सुदि ३ (पाखा तीज) को की। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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