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________________ प्राचार्य विजयसमुद्र सूरि ४८३ फाल्गुण वदि ७ के दिन १६ वर्ष की आयु में सुखराज ने सूरत (गुजरात) में प्राचार्य श्री विजय वल्लभ सूरि से तपागच्छीय जैन श्वेतांबर साधु की दीक्षा ली, नाम समृद्रविजय रखा गया और उपाध्याय सोहनविजय जी (प्राचार्य श्री विजयवल्लभ सूरि के शिष्य) के शिष्य बनाये गये । फाल्गुन सुदी ५ को भरूच में आप की बड़ी दीक्षा पं० सिद्धिविजय जी (बाद में प्राचार्य) द्वारा सम्पन्न हुई । वि० सं० १९६४ मिति कार्तिक सुदी १२ के दिन आपको अहमदाबाद में गणि पद से विभूषित किया गया । इसी वर्ष मिति मार्गशीर्ष वदि ५ के दिन आप को अहमदाबाद में पंन्यास पद से अलंकृत किया गया । वि० सं० २००८ फाल्गुण सुदि १० के दिन बड़ौदा में आपको उपाध्याय पद प्रदान किया गया। वि० सं० २००६ माघ सुदि ५ (२० जनवरी १९५३ ई०) को थाना नगर (बम्बई) में प्राचार्य श्री विजयवल्लभ सूरि जी ने प्रापको प्राचार्य पद से विभूषित कर अपना पट्टधर बनाया और पंजाब की सार-संभाल, धर्मरक्षा की जिम्मेवारी आप को सौंपी। वि० सं० २०३४ मिति जेठ वदि ८ को ८६ वर्ष की प्राय में मुरादाबाद (उत्तरप्रदेश) में प्रापका स्वर्गवास हो गया। वहाँ आप के चितास्थान पर समाधिमंदिर का भव्य निर्माण कराया गया है। विशेष ज्ञातव्य १. आचार्य श्री विजयवल्लभ सूरि जी के साथ ४० वर्षों तक सेवा में रहकर आपने उनके प्रत्येक कार्य में सहयोग दिया। २. आचार्य श्री के सचिव के रूप में पत्र लेखन तथा अन्य सब कार्य आपके द्वारा ही सम्पन्न होते थे। ३. आपकी गुरुभक्ति भी अनन्य थी। गुरुदेव के वचन का पालन करने में राम और हनुमान का अथवा महावीर और गौतम गणधर का दृष्टांत दिया जा सकता है। ___४. वि० सं० २००६ में थाना में आपको प्राचार्य पदवी देने के बाद गुरुदेव ने आप पर पंजाब की सेवा का उत्तरदायित्व डाला । तब बम्बई से गुरुदेव की भावना आप को साथ लेकर शीघ्र ही पंजाब जाने की थी। किन्तु बीमारी के कारण गुरुदेव की यह भावना पूरी न हो पाई। वे विहार अथवा उठने-बैठने से भी असमर्थ हो चुके थे। सख्त बीमार होते हुए भी गुरुदेव ने आप को पंजाब जाने की आज्ञा दी । परन्तु गुरुदेव को इस हालत में छोड़कर आप कदापि जाना नहीं चाहते थे । तथापि गुरु की प्राज्ञा को शिरोधार्य कर आपने १० साधुओं के साथ पंजाब की अोर विहार कर दिया। रास्ते में अनेक श्रावकों तथा मुनियों ने कहा कि गुरुदेव के शरीर की अवस्था ऐसी है कि आपको उनकी सेवा में रहना चाहिये था। उनके पास रहना इस समय आपका परमावश्यक है। इसलिये आपको बम्बई से विहार नहीं करना चाहिये था। आपने सब को यही उत्तर दिया कि गुरुदेव की आज्ञा को टालना प्रागमविरुद्ध है। गुरुदेव की प्राज्ञा का पालन करना मेरा मुख्य कर्तव्य है । यद्यपि मेरी प्रात्मा गुरुदेव के चरणों में ही है, मेरा शरीर मात्र ही जुदा हो रहा है । गुरुदेव का आदेश पाते ही कठिन और लम्बा विहार करके भी मैं गुरुदेव की सेवा में बम्बई तुरत पहुंच जाऊंगा। ग्रामानुग्राम विहार करते हुए आप अपने साथी मुनियों के साथ बोरसद पहुंचे । वहाँ बम्बई से एक श्रावक सेवन्तीलाल अापके नाम गुरुदेव का पत्र लेकर पहुंचा। उसमें लिखा था Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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