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________________ ४८२ मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म विजय जी, गणि मुक्तिविजय जी तथा आचार्य श्री विजयानन्द सूरि जी की धातु प्रतिमाएं। १२. वि० सं० १९६५ में गुरु विजयानन्द सूरि के समाधिमंदिर की प्रतिष्ठा प्राचार्य श्री विजय कमल मूरि जी ने कराई। प्राचार्य श्री का सम्मान वि० सं० १९८१ से २०१० तक प्रापकी सेवा में लाहौर, अंबाला शहर, साढौरा, सामाना, मालेरकोटला, रायकोट, लुधियाना, होशियारपुर, फगवाड़ा, जालंधर शहर, जंडियाला गुरु, अमृतसर, गुजरांवाला, पपनाखा, जेहलम, पिंडदादनखां, खानकाहडोगरां, रामनगर, स्यालकोट, जम्मूतवी, नारोवाल, कसूर, फिरोजपुर छावनी, जीरा, जगरावां, शांकर, नकोदर, पट्टी, बीकानेर, बंबई आदि अनेक नगरों में प्रवेश के समय, जन्म, हीरक जयन्ति, और दीक्षा हीरक जयन्ति के अवसर पर लगभग ८० अभिनन्दनपत्र श्वेतांबर, दिगम्बर आदि जैनसमाजों, सभा सोसायटियों, संस्थाओं, विद्वानों तथा मुसलमान भक्तों एवं नगरपालिकाओं की तरफ से अपित किये गये। __कतिपय विशिष्ठ व्यक्ति १. पुरातत्त्ववेत्ता श्री जिनविजय जी ने आपके समुदाय में मुनि श्री सुन्दरविजय जी से दीक्षा ग्रहण की। उच्चप्रकार का ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् मापने जनसाधु की दीक्षा का त्याग किया और गांधी जी के सांबरमती आश्रम में पुरातत्त्व विभाग में साहित्य सेवा में जुट गये । तथा जैन साहित्य संशोधक त्रैमासिक पत्र निकाला । जर्मनी में जाकर वहाँ से पुरातत्त्व के विषय में विशेष योग्यता प्राप्त की। सिन्धी जैन ग्रंथमाला प्रादि अनेक संस्थानों से उत्तम जैन ग्रंथों का संपादन और प्रकाशन किया । दीक्षा छोड़ने के पश्चात् भी आप प्राचार्य जिनविजय के नाम से ही प्रख्यात रहे। पापको भारत सरकार ने सन् ईस्वी १९६१ में पदमश्री के पद से विभूषित किया। २. आगमप्रभाकर मुनि श्री पुण्यविजय जी प्रवर्वक कांतिविजय जी के प्रशिष्य थे। प्राप ने पाटण, जेसलमेर, अहमदाबाद, बिकानेर आदि अनेक नगरों के जैन ग्रंथभण्डारों की हस्तलिखित प्रतियों की सूचियां (Cataloge) तैयार कर उन्हें सुरक्षित और व्यवस्थित किया। अनेक जैन ग्रंथों का आधुनिक शैली से संपादन और संशोधन कर प्रकाशित कराया । आप प्राचीन लिपियों के विशेषज्ञ थे। अनेक देशी-विदेशी स्कालर्ज़ को उनके शोधकार्यों में मार्गदर्शन करते थे। आप प्रतिदिन लगभग १८ घंटे इस कार्य में जुटे रहते थे । भारत सरकार द्वारा गठित प्राकृत सोसायटी के सभापति मनोनीत किये गये थे। जिनशासन-रत्न प्राचार्य विजयसमुद्र सूरि वि० सं० १९४८ मार्गशीर्ष सुदि ११ (ता. ११-१२-१८९१ ई०) के दिन पाली नगर (राजस्थान) में बीसा प्रोसवाल बागरेचा गोत्रीय सेठ शोभाचन्द्र जी की पत्नी सुश्री धारणीदेवी की कुक्षी से बालक का जन्म हुआ। बालक का नाम सुखराज रखा गया। वि० सं० १९६७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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