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जैनधर्म की प्राचीनता और लोकमत धारण करने वाले जो हैं वे निग्रंथ। निष्परिग्रही-यानि ममत्व रहित होते हैं ।
हमारे द्वारा दिये गये जैनधर्म की प्राचीनता के संदर्भो की पुष्टि निम्नलिखित कतिपय विद्वानों के मत से भी हो जाती है। अतः निःसंदेह जैनधर्म इतना प्राचीन है कि जिस के प्रादि काल को जानना असंभव है।
जैनधर्म की प्राचीनता के विषय में लोकमत (१) फ्रांस के डा० गेरिनाट का मत है कि :
अब यह बात निःसंदेह रूप से कही जा सकती है कि पार्श्वनाथ ऐतिहासिक व्यक्ति थे। जैन अनुश्रुति के अनुसार वे एक सौ वर्ष जीवित रहे और महावीर के निर्वाण से २५० वर्ष पूर्व निर्वाण पाये, इसलिए उनके कार्य कलाप का समय ईसापूर्व आठवीं शताब्दी का है ।
महावीर के माता-पिता पार्श्वनाथ के धर्म के अनुयायी थे। इस (अवसर्पिणी) काल में जैनधर्म के [क्रमशः] चौबीस प्रस्थापक हुए। वे तीर्थ कर कहे जाते हैं। तेईसवें तीर्थंकर पार्व नाथ से हम ऐतिहासिक काल में प्रवेश करते हैं । जैनधर्म असाधारण-स्वतंत्र, वास्तविक, व्यवस्थित सिद्धांत है।
(२) जैन स्तूप मथुरा इंट्रोडक्शन पृ० ६
The discoveries have to a very large extent supplied carroboration to the written Jain tradition and they offer tangible in convertible proof of the antiquity of the Jain Religion and of its early existence very much in its present form. The series of twenty four pontiffs (Tirthankars), each with his distinctive emblem was evidently firmly believed in at the beginning of the Christian
era.
(३) जर्मनी के प्रसिद्ध इतिहासविद् व संस्कृत प्रोफेसर डा० हर्मन यकोबी एम० ए० पीएच० डी० का मत है कि जैनधर्म सर्वथा स्वतंत्र धर्म है । मेरा विश्वास है कि यह किसी का अनु1. निर्ग्रन्थ शब्द जैन साहित्य का पारिभाषिक शब्द है (भगवान महाबीर के बाद भी उनके शिष्य पांचवें
गणधर सुधर्मास्वामी से लेकर पाठवें पाट तक जैन मुनियों के लिये निम्रन्थ शब्द का ही प्रयोग होता रहा है । "श्री सुधर्मास्वामिनोऽष्टौ सूरीन यावत् निर्ग्रन्थाः" । (तपागच्छ पट्टावली पृष्ठ २५३)
अशोक के शिलालेखों में भी निथ शब्द आया है। "निगंठेसु पि मे कटे इवे वियापटा होहंति ।" (अशोक के धर्मलेख पृष्ठ ६६)। चीनी बौद्धयात्री हुएनसांग जब वैशाली, राजगिर आदि आया था, तब वहां निग्रंथ बहुत संख्या में थे। "बावर्स ने अपने ग्रन्थ (भाग २ पृष्ठ ६३) पर निग्रंथ के स्थान पर दिगम्बर लिखा है, पर यह इसकी भूल है।" "निग्रंथ का अर्थ है गांठ के बिना।" जिसके पास आन्तरिक या बाहरी गांठ बांध कर रखने या संग्रह करने जैसा कुछ भी न हो अर्थात् परिग्रह का सर्वथा त्यागी। जैन शास्त्र निग्रंथ शब्द का स्वरुप इस प्रकार बतलाते हैं णिग्ग ठों णीरागो णिसल्लो सयलदोसबिमुक्को । णिक्कामो णिक्कोहो णिम्मानो णिम्मदो अप्पा ॥ (समनसुत्त गाथा १८७) इस गाथा में नंगा या दिगम्बर का कोई संकेत नहीं है। इसके विवेचन हम आगे करेंगे। 2. Introduction of his essay of Jain Bibliography. 3. जैन स्तुप मथुरा से प्राप्त मूर्तियों पर खुदे हए लेखों तथा जैनागमों से पता लगता है कि यह स्तूप
श्वेतांबर जैनों द्वारा स्थापित किया गया था।
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