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मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म "बाजस्य नु प्रसव प्रावभूवेमा च विश्वानानि सर्वत: । न नेमिराजा परि राति विद्वान पुष्टिं वर्द्धमानोऽस्मै स्वाहाः ॥" उसी प्रकार उसी वेद में आता है कि"स्वस्ति नस्तार्थोऽरिष्टनेमिः ॥” (यजुर्वेद अ० २५ मं० १६ पृष्ठ १४२) पर अरिष्टनेमि अथवा नेमि शब्द की टीकाएं बदल दी गईं।
ऐसा ही व्यवहार कई अन्य शब्दों के साथ भी हुआ । 'वर्धमान' भगवान महावीर का नाम है। ऐसा नाम पड़ने का कारण जैनग्रंथों में यह बतलाया है कि जब से वे गर्भ में आये तब से धन बल प्रादि सबकी वृद्धि होने लगी इसलिए उनका नाम वर्धमान रखा गया ।।
यजुर्वेद अ० ३ मंत्र २३ में वर्धमान को नमस्कार किया है"राजन्तमध्वराणां गोपामृतस्य दीरिवि वर्द्धमानं स्वेदमे ।"
अर्थात्-मन और इंद्रियों को दमन करने वाले (तीन गुप्तियों युक्त) शोभायमान, ज्ञान से प्रकाशमान, आनन्द के देने वाले, मोक्षरूप स्थान में विराजमान जगदीश्वर वर्धमान को नमस्कार हो।
पर शंकराचार्य ने विष्णु सहस्रनाम जिस में वर्धमान को विष्णु का एक अवतार बताया है, वहाँ वर्धमान पर टीका करते हुए लिखा है कि
"प्रपंच रूपेण वर्धते इति वर्द्धमानः ॥" अर्थात् -प्रपंच रूप से बढ़ते हुए इसलिये वर्द्धमान है ।।
ब्राह्मण ग्रंथों में केवल ऐसी टोका की ही विकृति नहीं हुई है परन्तु मूलग्रन्थों में भी जैन धर्म के सम्बन्ध में निन्दात्मक बातें जोड़ी गई हैं । ऐसे प्रसंग विष्णुपुराण, मत्स्यपुराण, अग्निपुराण, वायुपुराण, शिवपुराण, पद्मपुराण, स्कन्दपुराण, भागवत और कूर्मपुराण आदि में भरे पड़े हैं । ऐसे प्रसंगों का उल्लेख करते हुए पाजिटर ने अपनी पुस्तक “एन्शेण्ट इंडियन हिस्टारिकल ट्रैडीशन" (पृष्ठ २६१) में लिखा है कि"जरासंध द किंग आफ़ मगध... इज़ स्टिमटाइज़ड ऐज़ एन असुर एण्ड द बुद्धिस्ट एण्ड जनज़ आर ट्रीटेड ऐज़ असुराज़ एण्ड दैत्याज़.............
अर्थात्---मगध के महान राजा जरासंध को असुर बताया गया है..''और बौद्ध तथा जैन असुर एवं दैत्य के रूप में वर्णित हैं।
ऐसा होने पर भी जैन धर्म की सर्वथा उपेक्षा नहीं हो सकी तैतिरीय आरण्यक के १० वें प्रपाठक के अनुवादक ६३ में सायनाचार्य को भी लिखना पड़ा है कि
कंथा कोपीनोत्तरासंगादिनां त्यागिनो यथाजात रूपधरा निग्रंथः निष्परिग्रहाः ।
अर्थात् -शीत निवारण कंथा कोपीन उत्तरासंगों आदि के त्यागी और यथाजात रूप को 1. कल्पसूत्र सुबोधका टीका पृष्ठ २०४ 2. विष्णु सहस्रनाम स्टीक गीता प्रेस गोरखपुर पृष्ठ २०८
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