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________________ ४७५ श्राचार्य श्री विजयवल्लभ सूरि ७. खरतरगच्छीय घनश्याम संगीतज्ञ को पालीताना में सांप काटने की घटना - तीर्थाधिराज श्री शत्रुंजय की गिरिमालाएं, जलती हुई धरती, जेठ महीने की गरमी से तप्त पाषाण शिलाएं और संध्या समय की छाया से शीतल रेती इस प्रकार की संध्या वि० सं० २००८ जेठ महीने की सुदी ६ की इसी तरह की संध्या थी । घनश्याम अपने मित्रों के साथ पर्वत की कुदरती सुन्दरता को देखता हुआ शहर पालीताना से दूर निर्जन वन की ओर बढ़ रहा था । घनश्याम स्वयं इस घटना का वर्णन इस प्रकार करता है । "दूर पाँच नदियों का पुण्यप्रदेश पंजाब मेरी जन्मभूमि, संगीत शब्द ब्रह्म का मैं उपासक, संगीत के स्वरों को तो मैंने साधा परन्तु आत्मा की पहचान बाकी थी । ज्ञान का प्रकाश अभी दिखाई नहीं दिया था आत्मज्ञान का दीपक अब तक मेरे हृदय मंदिर में जला नहीं था । अन्तरंग के रंगमंडप में श्रद्धा देवी के नूपुरों की झनकार अब तक सुनाई नहीं दी थी। तो भी मैं पुण्यपवित्र तीर्थ पर पालीताना पहुंचा । श्री शत्रु ंजय के भव्य मौर रम्यमंदिर, उन की अनुपम शिल्पकला, वहाँ की कुदरती सुन्दरता इन सब का दर्शन मैं केवल पार्थिव दृष्टि से करता था । जब मैं चारों तरफ बिखरे हुए प्राकृतिक सौंदर्य का दर्शन करता हुआ अपने मित्रों के साथ आगे बढ़ रहा था । अचानक मेरे पैर का अंगूठा किसी ने डस लिया । उफ ! जिंदगी में पहली बार तीव्र वेदना का अनुभव किया धरती के जीव कितने जहरीले होते हैं, यह बात पहली ही बार मुझे मालूम हुई। मेरे हाथ-पैर बेकार होने लगे । क्या हुआ ? यह जानने की उत्सुकता थी, मेरी आँखों के सामने अंधेरा छा रहा था । उसी समय मैं ने एक नीले रंग की लम्बी प्राकृति दूर से प्राती हुई देखी। यह क्या है ? यह जान सकूं इस पहले ही बेहोश हो गया था । जब उस नीले रंग की प्रकृति ने मुझे बेहोश कर दिया तब मेरे साथी यात्रियों का कहना है कि उन्होंने और आस-पास के ग्वालों ने इस जहर को उतारने के अनेक उपाय किये । पर सब बेकार हो गये । अन्त में मुझे अस्पताल पहुंचा दिया गया। सिविल सर्जन ने इंजेक्शन लगाये, श्रोपरेशन किया परन्तु किसी से कोई लाभ न हुआ । मैं क्षण-क्षण में मौत के मुंह में जा रहा था । जीवन का दीप धीरे-धीरे बुझता चला जा रहा था। डाक्टरों ने मुर्दा समझकर मुझे मेरे मित्रों को सौंप दिया । मेरी इस हालत की ख़बर मेरे प्रिय मित्र (जिगरी दोस्त ) लाला रतनचन्द ( सराफ) के द्वारा जब परम पवित्र, पतितपावन प्राचार्यदेव (श्री विजयवल्लभ सूरीश्वर जी ) के पास पहुँची । तब तत्काल ही उन्हों ने ध्यान लगाया। कुछ देर बाद ध्यान छोड़ कर उन्होंने मुझे मृत्यु के मुंह से निकालकर जीवित करने के लिये वासक्षेप की एक पुड़िया भेजी। सुझे वासक्षेप पानी के साथ पिलाया गया । कुछ ही क्षणों के बाद मुझे उल्टी (वमन) हुई और उसके साथ ही मेरे शरीर में फैला हुआ विष (नीला - ज़हर) बाहर निफल प्राया । सर्प के ज़हर से मुक्त हो गया और सचेत होकर अपने मित्रों तथा आस-पास में लगी हुई भीड़ की तरफ प्राश्चर्यपूर्वक देखने लगा । मित्रों ने मुझे बेहोश होने से लेकर सचेष्ठ होने तक का सब वृतांत कह सुनाया । सर्प का ज़हर ही क्यों मेरे शरीर में फैने हुए श्रज्ञानरूपी ज़हर को इस वासक्षेप ने बाहर निकाल दिया । जिस से मेरे बाहर के चक्षुत्रों के साथ ही मेरा ज्ञान चक्षु, भी खुल गया। आज से पहले जिस जीवन मैं केवल पार्थिव लालसानों की पूर्ति रूप में मानता भा रहा था अब अपने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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