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________________ ४७० मध्य एशिया और पंजाब में जनधर्म अभिग्रहधारी प्रापका स्वभाव अपने लिये वज्र से भी कठोर था तथा दूसरों के लिये कुसुम से भी कोमल था। आपने अपने ध्येय की सिद्धि के लिये समय-समय पर अभिग्रह धारण किये। इसके प्रभाव से आपका अधिक प्रात्मविकास हुआ। सब कार्यों में सफलता ने आपके चरण चूमे। १. बम्बई में श्रावक-श्राविकानों के उत्प्रर्ष केलिये आपने पांच लाख रुपये के फंड को इकट्ठा करने की प्रतिज्ञा की उद्घोषणा की । इस प्रतिज्ञा की पूर्ति के लिये लखपति-करोड़पति, वृद्ध-युवक सब जुट गये और थोड़े ही समय में पांच लाख की धनराशि इकट्ठी हो गयी और उत्कर्ष के कार्य चालू हो गये । २. वि० सं० १९७२ में बीकानेर में आपने अभिग्रह किया था कि जब तक मैं पंजाब न पहुंचुगा तब तक केवल दस पदार्थ ही आहार में ग्रहण करूँगा। इसमें दवाई, पानी भी शामिल है। साथ में यह भी नियम लिया था कि कदाचित् भूलचूक से अथवा अन्य कार्यवश एक-दो पदार्थ अधिक उपयोग में आ जावेंगे तो दूसरे दिन केलिये उनसे दुगने पदार्थ छोड़ दूंगा। प्रतिदिन एकासना करते थे। पंजाब पहुँचने तक आपने इस अभिग्रह का दृढ़तापूर्वक पालन किया। ३. जब तक पंजाब में जैनगुरुकुल की स्थापना नहीं होगी तब तक प्रतिदिन एकासना, चौदस-पूनम, चौदस-अमावस्या का छठ (बेला), महीने के बारह तिथियों (दो दूज, दो पंचमी, दो अष्टमी, दो एकादशी, दो चौदस, पूनम व अमावस्या के दिन मौन, नगर-गांव में प्रवेश के समय बाजों आदि की धूम-धाम का त्याग रहेगा। ऐसी प्रतिज्ञाएं की। ४. जब अम्बाला शहर में कालेज बना तब आपश्री को मानपत्र देने का विचार हुआ प्रापश्री ने विचारकर्ताओं को सचित कर दिया कि जब तक कालेज केलिये डेढ़ लाख रुपया जमा न होगा मैं मानपत्र स्वीकार नहीं करूंगा । कालेज फंड में निर्धारित राशि जमा हो गई। ५. प्रापने गुजरांवाला में गुरुकुल स्थापित करना था, उसके लिये एक लाख रुपये की जरूरत थी। ६८००० रुपये जमा हो चुके थे आपने अभिग्रह किया कि जब तक एक लाख रुपया न होगा तब तक मिष्टान्न ग्रहण न करूंगा। आपके परम गुरुभक्त शिष्य प्राचार्य श्री विजयललित सूरि उस समय बम्बई में थे तब उन की प्रेरणा से एक अजन भक्त सेठ ठाकुरदास-विट्ठलदास ने बम्बई से रुपया बत्तीस हजार भेजकर आपके अभिग्रह को पूर्ण किया। गुरुकुल की स्थापना हो गई। जिनशासन की उन्नति और प्रभावना के लिये प्रापने अनेक अभिग्रह और प्रतिज्ञाएं की। इन सब का उद्देश्य जनसमाज के कल्याण का था। ऐसे अभिग्रहों से प्रात्मशक्ति का विकास होता है और उस शक्ति में से ही पूर्ति के चक्र गतिमान होते हैं । हमने कई बार देखा और सुना कि मापने अभिग्रह और प्रतिज्ञा के बल से अनेक ऐसे कार्य किये जिससे जनशासन की उन्नति हुई। ६. आपने वि० सं० १९६३ ई० स १६३६ में बड़ौदा में अखिल भारतीय स्तर पर श्र विजयानन्द सूरि की जन्म शताब्दी का समारोह बड़ी धूम-धाम से मनाया था। क्षमता और कार्यदक्षता संसार में यह कोई आश्चर्य का विषय नहीं है कि महापुरुषों के जीवन में उनके सामने अनेकानेक प्रतिस्पर्धी अथवा निष्कारण बिरोधी उठ खड़े होते हैं और इसके लिये कई तरह वे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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