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________________ प्राचार्य विजयवल्लभ सूरि ४७१ प्रतिकूल वातावरण का सामना भी करना पड़ता है किन्तु यह तो अवश्य प्राश्चर्यजनक है कि ऐसे वातावरण में भी उन महापुरषों की बुद्धि, प्रतिभा, धीरता, वीरता क्षोभ नहीं पाने पाते । अपने चरित्रनायक भी इस बात के अपवाद कैसे हो सकते थे । आपश्री के जीवन में प्रापके सामने विरोध का बावंडर मचाने वाले अनेक व्यक्ति उठे-खड़े हए । अनेक प्रकार के प्रतिकलअनुकूल संयोग भी उपस्थित होते रहे । फिर भी आपने अपनी एक निष्ठा, धर्मवृत्ति. प्रतिभा और कार्यदक्षता के द्वारा सब को निस्तेज कर दिया था। इतना ही नहीं किन्तु आपश्री समुद्र में पाये हुए तुफ़ान में अपने बेड़े को शांति और धीरता के साथ पार ले जाने वाले विशिष्ट विज्ञानवान सुकानी की भाँति कार्यदक्षता से सदा अक्षुब्ध रहकर अपने ध्येय और कार्य को आगे पहुंचाते रहे । आपने अपने विरोधी के विरोध में न तो कभी वातावरण फैलाने की कोशिश की और न ही उसके लिये अपने हृदय में वैर विरोध को स्थान दिया। चाहे कोई भी आप से ईर्ष्या भाव रखता, कोई क्रोध के प्रावेश में प्राकर लाल-पीला हो जाता, चाहे कोई वैरी समझकर अंट-शंट बोल जाता तो भी आपश्री की शांतप्रभा तथा शांतमुद्रा देखकर वह शांत हो जाता और हाथ जोड़कर नतमस्तक होकर अपने किये पर पछता जाता था। प्रवचन कौशल्य प्रापको धर्मदेशना जिन्होंने सुनी है उन्हें अनुभव है कि आपकी व्याख्यान देने की पद्धति कितनी प्रौढ़, व्यापक, प्रोजस्वी, पांडित्यपूर्ण, सरल, हृदय तलस्पर्शी तथा प्रशांत रस से परिपूर्ण थी। आपके प्रवचन में किसी भी मत-संप्रदाय-गच्छ के विषय में आक्षेप नहीं होता था। आप तो वास्तविक धर्म के रहस्यों को प्रकाश में लाते थे । यही कारण है कि जहाँ कहीं भी आप गये वहां प्रापके व्याख्यान में बिना किसी भेदभाव के जैन हो वा जैनेतर, स्वगच्छ का हो या परगच्छ का, अपनी परम्परा का हो या पर परम्परा का, हिन्दू हो या मुस्लिम, सिख हो या ईसाई, सनातनधर्मी हो या आर्यसमाजी निःसंकोच होकर आते थे और धर्मामृत का पान कर अपने को धन्य मानते थे। तथा प्रसन्नतापूर्वक अपनी धर्मभावना को पुष्ट करते थे। पाप के प्रवचन को सुनकर बड़े-बड़े विद्वान भी मंत्रमुग्ध हो जाते थे । आपके शांत और मार्मिक उपदेश के प्रभाव से सैकड़ों नगरों और गांवों के चिरकाल से चले आरहे झगड़े एवं वर-वैमनस्य शांत हुए । इसी कारण को लेकर जैन-जनेतर जगत को यह विश्वास था कि शांति के इस पैगम्बर के जहाँ भी चरण पड़ेंगे वहां आनन्द ही आनन्द और शांति ही शांति होगी । सारा जैनसमाज आपको "शांति का संदेशवाहक" के नाम से पहचानता था । व्याख्वान की शैली इतनी सहज और सरल थी कि छोटे से बड़े, अनपढ़ तथा विद्वान आसानी ने हृदयांगम कर लेते थे। संकटापन्न देशवासियों की सहायसा भूकम्प, दुष्काल, बाढ़, अग्निकांड आदि प्राकृतिक तथा अप्राकृतिक मुसीबतों से पीड़ित प्रजा के लिये आप सदा अपने प्रभावशाली उपदेशों से जैनसमाज से अन्न, वस्त्र, जीवनोपयोगी सामग्री तथा प्राथिक प्रादि की अधिक से अधिक सुविधाएं दिलाते थे। शास्त्रार्थ व चर्चाएं पाप सदा समन्वयात्मक धर्मोपदेश से जनता-जनार्दन को आदर्शमार्ग अपनाने के लिये प्रेरित करते थे। पाप की वाणी में किसी भी मत-मतांतर-संप्रदाय पर आक्षेप नहीं होता था। -- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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