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________________ प्राचार्य विजयवल्लभ सूरि (५) युवक परिषदों, स्वयंसेवक परिषदों पीर शिक्षण समारम्भों में आप श्री के प्राणप्रेरक संदेश पहुंचने पर उन से उत्साहित होकर युवक कार्यकर्ता काम करके सफलता को प्राप्त करते थे। (६) पंजाब श्रीसंध के संगठन रूप श्री प्रात्मानन्द जैन महासभा की स्थापना आप श्री के शिष्य उपाध्याय सोहनविजय जी ने की, तत्पश्चात् शीघ्र ही उनका स्वर्गवास हो गया । पश्चात् आप श्री की प्रेरणा और प्रोत्साहन से इस के अनेक अधिवेशन प्राप की निश्रा में हुए। जिन में कुरूढ़ियों, हानिकर रिवाजों तथा कुसंप आदि को मिटाकर श्रीसंध पंजाब को सुसंगठित, सुसंस्कृत बनाया और संघशक्ति को महाबल प्रदान किया । (७) वि० सं० १९८२ में गुजरांवाला में महासभा के अधिवेशन आप की निश्रा में ओसवाल, खंडेवाल आदि जैनजातियों में परस्पर बेटे-बेटियों के रिश्तेनातों को प्रचलित करने का प्रस्ताव पास होने पर नि:संकोच भाव से विवाह शादियां होने लगीं। इस प्रकार सब जैन जातियां परस्पर रीढ़ की हड्डी के समान शृंखलाबद्ध हुई। एकता की प्रत्यक्ष मति आप वाड़ाबन्दियों और गुरुडमवाद को पसंद नहीं करते थे। आप सदा साधुसंघ तथा श्रावकसंघ में एकता के पक्षपाती रहे हैं। आपका कहना था कि यदि साधु समाज में मेलजोल रहेगा तो चतुर्विध जैनसंघ का संगठन कायम रह सकेगा। आप सदा यह चाहते थे कि सब जैन धर्मगुरू अपने मत-मतांतरों को भूलकर संगठित रूप से जिनशासन की शोभा को बढ़ावें । आप सदा फ़रमाया करते थे कि जैनसमाज के संगठन केलिये यदि मुझे प्राचार्य पदवी छोड़नी भी पड़े तो मैं तैयार हूं। अन्य प्राचार्यों से मेल मिलाप ___एक दो कदाग्रही प्राचार्यों के सिवाय प्रापश्री का वर्तमान प्राचार्यों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध था। आप चाहते थे कि उन एक दो के साथ भी किसी प्रकार का मतभेद न रहकर समस्त में एकता का वातावरण कायम किया जावे, पर वे लोग सदा अनेकता के रूप में ही बने रहे और अन्य भी प्राचार्यों और समुदायों के विरोध में ही सारा जोवन लगे रहे। गुरुभक्त वल्लभ . आप श्री विजयानन्द सूरि के बचनों और आज्ञाओं का बराबर पालन करते थे और जब तक वे विद्यमान रहे तब तक उन्हीं की सेवा में साथ में रहे । गुरुदेब के प्रत्येक कार्य को निजी सचिव के रूप में करते रहे । पत्रों का उत्तर देना, ग्रंथ लेखन में सहयोग देना, देशी-विदेशी विद्वानों की शंकाओं के समाधान में पत्र व्यवहार करना, सब कार्य बड़ी बुद्धिमत्ता से करते थे। गुरुदेव को दूसरी बार कहने की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। एक बार प्रवर्तक श्री कान्तिविजय जो ने गुरुदेव से पूछा-गुरुदेव ! आप के बाद पंजाब किसको सौंप रहे हैं ? गुरुदेव ने वल्लभविजय जी की तरफ़ संकेत करते हुए कहा- इसके लिये "वल्लभ' को तैयार कर रहा हूं, मेरा ध्यान वल्लभ पर ही जाता है, यही इस देश में धर्म की प्रभावना करेगा" आपने गुरुदेव के एक-एक वचन को सत्य प्रमाणित किया और पंजाब पर सदासर्वदा उपकार करने में संलग्न रहे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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