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________________ ४४२ मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म फ़िरकों के पास हैं । स्थानकमार्गी फ़िरका कुछ प्रागमिक साहित्य मानता है, किन्तु वह डालों, शाखाओं, पत्तों, फूलों और फलों के बिना का एक मूल अथवा थड़ जैसा है और वह मूल अथवा थड़ भी उसके पास अखंडित नहीं है। यह बात वास्तविक है कि श्वेतांबर परम्परा जो आगमिक साहित्य का वारसा रखती है वह प्रमाण में दिगम्बर परम्परा के साहित्य से अधिक और खास असली है । तथा स्थानकमार्गी आगमिक साहित्य से विशेष विपुल और समृद्ध है। अर्थ-विजय ! महाराजा कनिष्क के राज्य में नवें वर्ष के पहिले महीने में मिति ५ के दिन ब्रह्मा की बेटी, भट्टिमित्र की स्त्री विकटा ने सर्वजीवों के कल्याण तथा सुख के लिये कीर्तिमान वर्धमान की प्रतिमा कौटिक गण (गच्छ) वाणिज कुल और वयरी शाखा के प्राचार्य नागनन्दि की निर्वर्तना (प्रतिष्ठित) है। (यह मूर्ति ए० कनिंघम के मत से ई० स० ४८ वर्ष की है) अब हम कल्पसूत्र पर दृष्टि डालते हैं । तो उस मूलपाठ वाली प्रति के पत्रे ८१, ८२ एम. पी. ई. वाल्युम २२ पत्र २६३ से हमें ज्ञात होता है कि सुट्ठिय (सुस्थित) नामक प्राचार्य ने जो श्री महावीर प्रभु के आठवें पट्टप्रभावक थे कौटिक नामक गण स्थापन किया था। उसके विभाग रूप चार शाखाएं और चार कुल हुए। तीसरी शाखा 'वयरी' थी और तीसरा वाणिज नामक कुल था। कल्पसूत्र का मागधी भाषा का पाठ यह है"थेरेहितो णं सुट्ठिय सुप्पडिबुद्धेहिंतो कोडिय काकंदिएहितो बग्घावच्चस गुतेहिंतो। इत्थणं कोडिय गणे णामं गणे निग्गए । तस्सणं इमानो चत्तारि साहाओं, चत्तारि कुलाई एवमाहिज्जंति । से किं तं साहायो ? साहाओ एवमाहिज्जति, तं जहा उच्चनागरी, १. विज्जाहरी २. वयरी य ३. मज्झिमिल्ला य ४. कोडिय गणस्स एया हवंति चत्तारि साहायो । १। से तं साहायो।" "से कि तं कुलाइ ? कुलाई एवमाहिज्जति, तंज्जहा-पढमित्थं बंभलिज्ज बिइयं नामेण वित्थलिज्ज तु, तइयं पुण वाणिज्ज, चउत्थयं पण्हवाहणयं" ।२। इससे स्पष्ट है कि मथुरा से प्राप्त प्राचीन जैन मूर्तियों के लेखों में जो गण, कुल और शाखामों के नाम दिए गये हैं वे सब कल्पसूत्र की स्थविरावली के साथ मिलते हैं। चौथा लेख (पंक्ति १) संवत्सरे ६० व 'कोडुबिनी वेदानस्य बधुय । (पंक्ति २) को [टितो] गणतो [पण्ह] वाह [ण] यतो कुलतो मज्झिमातो साखातो'.. सनीकाये। (पंक्ति ३) भत्ति सालाए बंबानी (A Canningham Arch Report Vol III p. 35 plate no. 15 Script no• 19) इस उपर्युक्त लेख का सम्पूर्ण अर्थ करना संभव नहीं है क्योंकि लेख अनेक स्थानों से नष्ट हो गया हुआ है। तथापि प्रथम पंक्ति के अधूरे लेख से ऐसा अनुमान करना ठीक प्रतीत होता है कि इस मूर्ति को अर्पण करने का काम किसी स्त्री ने किया है । दूसरी पंक्ति का अर्थ इस प्रकार हैं :-कौटिक गण, प्रश्न वाहनक कुल. मध्यमा शाखा से । जब हम कल्पसूत्र के लेख को देखते हैं तो यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि ये कुल और शाखा भी कल्पसूत्र की स्थविरावली से मिलते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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