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________________ वीर परम्परा का प्रखंड प्रतिनिधित्व ૪૪o जुदा खास रचे हुए शास्त्रों के समय से पहले ही ये विनाशक कार्य थे और पीछे ऐसे न रहे क्योंकि ऐसा न मानने से ऐसी कल्पना करनी पड़ेंगी कि वीर परम्परा के असली प्रागमिक साहित्य को सर्वथा विनाश करने वाले बलों ने समान क्षेत्र और समान काल में विद्यमान ब्राह्मण और बौद्ध असली साहित्य अथवा उस समय में रचे गये साहित्य पर विनाशक प्रभाव नहीं डाला और डाला भी हो तो नाममात्र से । यह कल्पना मात्र असंगत ही नहीं परन्तु अनैतिहासिक भी है। भारत के किसी भी भाग में वर्त्तमान अथवा रचे जाने वाले साहित्य के विषय में ऐसे पक्षपाती विनाशक बल कभी भी उपस्थित होने का इतिहास प्राप्त नहीं होता कि जिन बलों ने मात्र जैन साहित्य का ही सर्वथा विच्छेद किया हो और ब्राह्मण अथवा बौद्ध साहित्य पर दया रखी हो। यह और ऐसी ही दूसरी अनेक प्रसंगतियां हमें ऐसा मानने के लिये प्रेरित करती हैं कि वीर परम्परा का असली साहित्य वस्तुतः नाश न होकर अखंड रूप से विद्यमान हो रहा है । इस दृष्टि से देखते हुए इस असली साहित्य का वारसा दिगम्बर फ़िरके के पास नहीं है परन्तु श्वेतांबर और स्थानकमागी लिखा है जिसका अर्थ यह है कि यह लेख जो कि संवत् २० ग्रीष्म ऋतु का प्रथम महीना मिति २५ का है इसमें वर्णन है कि श्री वर्धमान की प्रतिमा भेंट की । यह प्रतिमा नग्न है । इसमें कोई सन्देह नहीं है कि यह जैनों के चौबीसवें तीर्थंकर श्री वर्धमान अथवा महावीर का प्रतीक है । यह मूर्ति ईसा पूर्व ३७ वर्ष की हैं अर्थात् दो हज़ार वर्ष प्राचीन है | Alaxander Cunningham C. S. I, ने Archeological Report Vol. III p. 31 में Plate no; 6 Script 13 Samvat 20 Jain Figure में लिखा है कि This inscription which is dated in the Samvat year 20 in the first of Grishma (the hot season) the 25th day, records the gift of one statue of Vardhman (Pratima 1) as on the figure is naked. There can be no doubt that it represents the Jain Vardhman or Mahavira the twenty fourth Pontiffs. (B. C. 37) दूसरा लेख - नमो अरहंताणं, नमो सिद्धाणं सं० ६२ ग्र० ३ दिन ५ अस्यां पूर्वाये शटकस्य श्रार्यकक्कसंघस्तस्य शिष्य प्रातपिको गहवरी यस्य निर्वर्तणं चतुर्वणं संघस्य या दिन्ना पडिमा ग० वैहिकाये दत्ति ॥ अर्थ - अरहंतो को नमस्कार, सिद्धों को नमस्कार । संवत् ६२ उष्णकाल का तीसरा महीना मिति ५ को प्रार्य कक्कसंघ के शिष्य प्रातपिक श्रौमहक प्रार्य द्वारा प्रतिष्ठित करवाकर चतुर्वर्णं संघ की अर्चना के लिए अर्पण की । (यह संवत् इंडो सँथियन नरेशों के साथ संबंध नहीं खाता किन्तु इसके पहले के किसी राजा का संवत् प्रतीत होता है । क्योंकि इस लेख की लिपि अत्यन्त प्राचीन है- -डा० बूल्हर) । तीसरा लेख सिद्धं । महाराजस्य कनिष्कस्य राज्ये संवत्सरे नवमे ( ६ ) मासे प्रथ० ( १ ) दिवसे ५ श्रस्यां पूर्वाये, कोटियतो गणतो, वाणियतो कुलतो, वयरितो साखातो वाचकस्य नागनंदिस्य निवर्तनं ब्रह्मभूतये भट्टि मित्तस्य कोडुंबिणिये । विकडाए श्री वर्धमानस्य प्रतिमा कारिता सव्वसत्त्वानं हित-सुखाये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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