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वीर परम्परा का अखंड प्रतिनिधित्व
तो भी वह इस समय जितना है उसमें ही सब असली साहित्य का मूल रूप में समावेश हो जाता है ऐसा कहने का प्राशय नहीं है। स्थानकमार्गी फिरके ने अमुक ही आगम मान्य रख कर उसके सिवाय मान्य न रखने की पहली भूल की। दूसरी भूल आगमिक साहित्य के अखण्डित विकास को और वीरपरम्परा को पोषण करने वाली नियुक्ति प्रादि चतुरंगी के अस्वीकार में इस ने की और अन्तिम अक्षम्य भूल इस फिरके के मुख्य रूप से क्रियाकांड के समर्थन में से फलित होने वाले चिंतन मनन के नाश में आ जाती है । जो अनेक सदियों के मध्य भारतवर्ष में प्राश्चर्यजनक दार्शनिक चिंतन, मनन और तार्किक रचनाएं खूब अधिक होती थीं इस जमाने में श्वेतांबर और दिगम्बर विद्वान भी इस प्रभाव से अछूते न रहे और इन्होंने थोड़ा परन्तु समर्थ योगदान जैन साहित्य को दिया। उस समय में प्रारम्भ हुअा और चारों तरफ विस्तार पाने वाला स्थानक
"थेराणं सुट्टियसुप्पडिबुद्धाणं कोडिय काकंदगाणं इमे पंच थेरा अन्तेवासी अहवच्चाए प्रभिण्णया होत्था, तं जहा-थेरे अज्ज इंददिण्णे पियग्गंथ थेरे विज्जाहर गोवाले कासवगुत्तेणं, थेरे इसिदत्ते थेरे अरिहदत्ते थेरेहिता णं पियग्गंथेहितो इत्थं मज्झिमा साहा निग्गया।" "से कि तं कुलाइं एवमाहिज्जति, तं जहा पढमित्थ बंभलिज्जं बिदूयं नामेण वत्थलिज्ज तु तइयं पुण वाणिज्जं चउत्थयं पण्हवाहणयं । अर्थात् – इस कल्पसूत्र में ऐसा वर्णन है कि सुस्थित सुप्रतिबद्ध प्राचार्य के दुसरे शिष्य प्रियग्रंथ स्थविर ने मध्यमा शाखा स्थापित की और इसमें से प्रश्नवाहनक कुल निकला । पांचवा लेखसं० ४७ ग्र० २ दि० २० एतस्यां पूरवाये चारणे गणे, पेतिकधम्मिक [कुल] वाचकस्य
रोहणंदिस्य सीसस्य सेनस्य निर्वतणं, सावक दर........ 'प्रपा [दि] न्ना...... अर्थ-संवत् ४७ ग्रीष्म काल का दूसरा महीना मिति २० को चारण गण पेतिधम्मिक (प्रतीधार्मिक) कुल के वाचक रोहनन्दि के शिष्य सेन के उपदेश से श्रावक इत्यादि । यह लेख्न सर कनिंघम के मत से इ० पू० १० वर्ष का है। [A. Canningham C. S. I. Arch Report Vol III page 33 plate no; 10 Script 14 (10 B. C)] जब हम कल्पसूत्र की स्थविरावली से मिलान करते हैं तो ये गण और कुल भी इससे मेल खाते हैं। (पाठ) थेरेहितो णं सिरिगुत्तेहितो इत्थणं चारणे गणे णामं गणे निग्गए, तस्सणं इमानो चत्तारि सहायो, सत्त य कुलाई एवमाहिज्जतिसे कि तं कुलाइं ? कुलाई एवमाहिज्जति तंजहा पढमित्थ वत्थलिज्ज, बीन पुण 'पीइघम्मिन' होइ। अर्थात्-स्थविर श्री गुप्त से चारण गण निकला तथा चारण गण से प्रीतिमिक शाखा निकली। छठा लेख --- सिद्धं । नमो प्ररहते महावीरस्य देवस्य राज्ञा वासदेवस्य संवत्सरे ६८, वर्षामासे ४ दिवसे
११ एतस्ये प्रार्य रोहनियतो गणतो परिहासक कुलतो पोणपत्रिकात साखातो गणिस्य Jain Education International
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