________________
जैनधर्म की प्राचीनता और लोकमत विद्यमान हैं। तब उसने वहाँ पहुंचकर झट खुदाई शुरू की। बहुत सी जैन मूर्तियां, जैन मंदिरों तथा स्तूपों के पत्थर प्राप्त हुए जो २६ ऊँटों पर लादकर लाहौर लाये गये और वहां के म्यूजियम में सुरक्षित किये गये।
(५) विज्ञप्ति त्रिवेणी ग्रंथ में कांगड़ा (हिमाचल) में जैन श्वेतांबर तीर्थ की स्थापना अरिष्टनेमि के समकालीन वहाँ के राजा शिवशर्म ने की थी। यह कटौचवंशीय राजा अंबिकादेवी (श्री नेमिनाथ की शासन देवी) को अपनी कुलदेवी मानता था । (इसका विवरण कांगड़ा के प्रकरण में करेंगे।
(६) काशमीर के इतिहास राजतरंगिणि (कवि कल्हण कृत) में वर्णन है कि वहां का राजा सत्यप्रतिज्ञ अशोक महान् जैनधर्मानुयायी था इसका समय नेमिनाथ और पार्श्वनाथ का मध्यवर्ती था। (इसका विवरण हम काश्मीर के इतिहास में आगे करेंगे) इसने तथा इसके पत्र आदि अनेकों ने जैन मंदिरों का निर्माण तथा जैन धर्म का प्रसार किया। इससे भी स्पष्ट है कि पार्श्वनाथ से भी पूर्व जैनधर्म विद्यमान था। पार्श्वनाथ से पहले बाईसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमि थे । अतः इससे भी नेमिनाथ का ऐतिहासिक होना स्पष्ट सिद्ध होता है।
श्री नेमिनाथ का समय इतिहासकारों ने ईसा पूर्व तीन हजार वर्ष प्रांका है। ये बाईसवें तीर्थंकर थे। इनसे पहले नेमिनाथ से लेकर ऋषभदेव के मध्यवर्ती काल में क्रमशः २० तीर्थंकर और हो चुके हैं। इस अर्हत् परम्परा की पुष्टि वैदिक साहित्य से भी होती है। इन मध्यवर्ती बीस तीर्थंकरों के होने में कितना समय व्यतीत हुआ होगा ? इसका अन्दाज पाठक स्वयं लगा लें। कहना होगा कि यह समय अंकों की गिनती की सीमा से बाहर तक पहुंच जाता है। ऋषभदेव का समय तो इस काल से भी बहुत अतीत था।
अतः यह बात निर्विवाद सिद्ध हो जाती है कि प्रार्हत् (जैन) धर्म न केवल ऐतिहासिक युग से प्राचीन है परन्तु वैदिक काल और वैदिक धर्म से भी सर्वाधिक प्राचीन है । ब्राह्मण साहित्य में जैन तीर्थों शत्रुजय, गिरिनार आदि के महत्व के पर्याप्त उल्लेख उपलब्ध हैं। जैनधर्म इतना प्राचीन है कि इसके प्रारंभ की निश्चित तिथि ज्ञात करना कोई सरल कार्य नहीं है अपितु अशक्य
हम लिख पाये हैं कि वैदिक ब्राह्मण साहित्य में जैनधर्म, जैन तीर्थंकरों तथा जैन तीर्थों की प्रशंसा एवं पूज्यभाव के बहुत उल्लेख पाये जाते हैं। इसके बावजूद ब्राह्मण धर्मानुयायियों ने आगे चलकर न केवल जैनधर्म की उपेक्षा ही की, परन्तु उसके प्रति अवाच्य वचन कहने में भी. कोई कमी नहीं रखी। इसका कारण यह था कि जैनधर्म अपने विचारों पर दृढ़ रहा और 1. दृष्ट्वा शत्रुजयतीर्थ नत्वा रेवतकाचलम् ।
स्नात्वा गजपदे कुण्डे, पूनर्जन्म न विद्यते ॥ 1 ॥ (स्कन्द पुराण) प्रर्थात् श्रीशत्रुजय तीर्थ के दर्शन से, गिरिनार पर्वत को नमस्कार करने से, गजपदकुड में स्नान करने से
फिर जन्म नहीं होता। 2. भागवत् स० ५ प्र० ६; आग्नेय अ० ४६; विष्णुपुराण अं० ३ अ० १७; विष्णुपुराण बंगला आवृत्ति अ.
१८ अ ३; शिवपुराण रुद्र सं० २ युद्धखंड ५ . ४-५; ज्ञान सं० अ० २१-२२; म.स्य युराण प्र० २४; स्कन्ध पुराण; कूर्मपुराण अ० २२,३६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org