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मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म उसने ब्राह्मणों को किंचित् मात्र भी महत्ता नहीं दी । जो ब्राह्मण तीर्थंकरों की शरण में पाये वे पूर्णतः अर्हतों के अनुयायी हो गये । अर्थात् उन्होंने भी श्रमण संस्कृति को स्वीकार कर लिया।
परन्तु तीर्थंकर महावीर के समकालीन तथागत गौतमबुद्ध के अनुयायियों ने ब्राह्मण वर्ग से समझौते का प्रयास किया। उन्होंने बुद्ध के जन्म के लिये दो कुल बतलाये-क्षत्रीय और ब्राह्मण । स समझौते का यह फल हुआ कि यद्यपि शाक्यमुनि बुद्ध के समय के बौद्धों को ब्राह्मण ग्रंथों में कोई महत्व नहीं मिला और बुद्ध साहित्य में भी राम-कृष्ण को कोई महत्व नहीं मिला। पर बाद में ब्राह्मणों ने शाक्यमुनि को अपना एक अवतार मान लिया और बुद्ध की गणना दस अवतारों में हुई, अपनी स उक्ति के प्रमाण में हम यहाँ कह दें कि महाभारत शांतिपर्व ३४८ वें अध्याय में दस अवतारों की सूचि दी है उसमें बुद्ध का नाम नहीं है । यथा--
हंसः कर्मश्च मस्त्यश्च प्रादुर्भावा द्विजोत्तम :॥ ५४॥ वराहो नरसिंहश्च वामनो राम एव च ।
रामो दाशरथिश्चैव सात्वतः कल्किरेव च ॥ ५५ ॥ इन दस अवतारों में ऋषभ और बुद्ध का हिन्दू पौराणिक अवतारों में उल्लेख नहीं है। इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि ऋषभ और बुद्ध को पौरणिक ब्राह्मणों ने बाद में अवतारों में सम्मिलित कर लिया । यद्यपि ब्राह्मण ग्रंथों में अनेक जैन संदर्भ ऐसे विद्यमान हैं जिनमें ऋषभ अजितनाथ, अरिष्टनेमि तथा वर्धमान-महावीर आदि जैन तीर्थकरों को ईश्वर के रूप में स्वीकार करके उनसे कल्याण कामना की है तथा बड़ी श्रद्धा और भक्ति से नमस्कार भी किया है।
यह बात भी ध्यान में रखने योग्य है कि वैदिक आर्य ईश्वर को एक, स्वतंत्र, अनादि, अनंत, सर्वज्ञ-सर्वव्यापी, अरूपी, कर्मफलदाता और सृष्टि का कर्ता-हरता मानते हैं । जिस से ऐसे अरूपी ईश्वर का अवतार लेना और जन्म-मरण असंभव है। तथापि जैनों के चौबीस तीर्थंकर (अर्हत्) जिनको जैन संस्कृति सर्वदोषरहित, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, सशरीरी मानती है और उनके सशरीरी होने के कारण जब उपासना और आराधना के लिये उन तीर्थंकरों की प्रतिमाएं निर्मित कराकर जैन मंदिरों-तीर्थों की स्थापनाएं की और इसके माध्यम से लोगों में प्रभु-ईश्वर भक्ति के लिये पार्कषण बढ़ता गया । तब ब्राह्मणों ने भी जनधर्म की प्रतिस्पर्धा में निगम (वेदों) और
आगम (जैन शास्त्रों) के माध्यम को लेकर उपनिषदों आदि ग्रन्थों की रचना करके पहले अशरीरी ईश्वर के १० अवतारों की और बाद में २४ अवतारों की कल्पना करके उन अवतारों की प्रतिमानों का निर्माण किया और उनके मंदिरों की स्थापनाएं की। इस प्रकार अशरीरी, अमूर्ति क, सर्वव्यापी ईश्वर को शरीर व्यापी साकार-सशरीरी बनाकर मूर्ति पूजा का प्रारंभ किया। प्रारंभ में सशरीरी ईश्वर मानने के कारण केवल जैन ही मूर्तिपूजक थे वैदिक लोग मूर्तिपूजक नहीं थे। क्योंकि अशरीरी ईश्वर का प्राकार न होने से ईश्वर की मूर्ति निर्माण होना सर्वथा असंभव था। इन अवतारों में ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव की गणना नहीं है। कहने का प्राशय यह है कि यज्ञयांगादि क्रियाकांडी वैदिक ब्राह्मण जैनधर्म की प्रतिस्पर्धा के लिए पौराणिक काल में ईश्वर के अवतारों की कल्पना करके मूर्तिपूजक बने । जैनों के समझौतेवादी विचारधारा से दूर रहने का 1. कल्पसूत्र सुबोधिका टीका 2. जातक कथा पृष्ठ ३६
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