SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 474
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वीर परम्परा का प्रखण्ड प्रतिनिधित्व ४३५ इन तीनों संप्रदायों में समा जाते हैं । भगवान महावीर से पहले भी जैनपरम्परा का अस्तित्व ऐतिहासिक दृष्टि से सिद्ध है । इस परम्परा को वीर पूर्व परम्परा के नाम से पहचाना जाता है । यह परम्परा प्रात् (प्रथवा जैन परम्परा ) से जगत्प्रसिद्ध है और आज तक एक या दूसरे रूप में जीवित चली आ रही है । यहाँ विचारणीय मुद्दा यह है कि वीर परम्परा के प्रथम से अब तक कितने फांटे इतिहास में दृष्टिगोचर होते हैं और अब जितने सम्प्रदाय समक्ष हैं उन सब में वीरपरम्परा का प्रतिनिधित्व कम व अधिक एक व दूसरे रूप में होते हुए भी उन सब फिरकों में से किस फिरके अथवा सम्प्रदाय में उसका प्रतिनिधित्व कम व अधिक एक व दूसरे रूप में होते हुए भी उन सब फिरकों में से किस फिरके अथवा संप्रदाय में उसका प्रतिनिधित्व अधिक खण्ड रूप से सुरक्षित है ? वीर-परम्परा के तीनों फिरकों के शास्त्रों का तुलनात्मक तथा ऐतिहासिक वांचन, चिंतन और इन तीनों फिरकों के उपलब्ध आचार-विचारों का अवलोकन करने से ऐसा स्पष्ट ज्ञात होता है कि वीर परम्परा का प्रखण्ड प्रतिनिधित्व श्वेतांबर परम्परा में बाकी की दोनों परम्पराओं से विशेष रूप से तथा विशेष यथार्थ रूप से सुरक्षित रहा है। मेरे इस मन्तव्य की पुष्टि में यहाँ संक्षेप में श्राचार, उपासना और शास्त्र इन तीनों अंशों पर विचारों का ध्यान ग श्वेतांबर, दिगम्बर या स्थानकमार्गी किसी भी फ़िरके की धार्मिक प्रवृत्ति और प्रचार के इतिहास पर दृष्टिपात करेंगे तो हम पायेंगे कि अमुक फ़िरके ने वीर परम्परा के प्राणरूप अहिंसा के सिद्धान्त में ढील नहीं की। इसके सिद्धान्त और समर्थन के प्रचार में जितना भी बन पड़ा किंचित् मात्र भी कमी नहीं की, हमें यह बात सगौरव स्वीकार करनी चाहिये कि अहिंसा के समर्थन और उसके व्यावहारिक प्रचार में तीनों फ़िरकों के अनुयायियों ने अपने-अपने ढंग से एक समान सहयोग दिया है । इसलिये हिंसा सिद्धान्त की दृष्टि से मैं यहाँ कुछ नहीं कहना चाहता । पर इसी हिसा तत्त्व का प्राण और क्लेवर स्वरूप अनेकान्त सिद्धान्त की दृष्टि से मैंने यहाँ प्रस्तुत प्रश्न पर विचार करने का निश्चय किया है । यह तो प्रत्येक अभ्यासी जानता है कि तीनों फ़िरकों का प्रत्येक श्रनुयायी अनेकान्त अथवा स्याद्वाद के लिये एक समान अभिमान, ममत्व और श्रादर रखता है। ऐसा होते हुए भी प्रस्तुत प्रश्न लिये देखना यह है कि यह अनेकान्त दृष्टि किस फ़िरके के आचारों में, उपासना में अथवा शास्त्रों में पूर्णरूप से सुरक्षित है । अथवा सुरक्षित रखी जाती है ? जहाँ तक वादविवाद, दार्शनिक चर्चाएं, दार्शनिक खंडन-मंडन और कल्पना जाल का सम्बन्ध है वहाँ तक तो अनेकान्त की चर्चा तथा प्रतिष्ठा तीनो ही फ़िरकों में समान रूप से इष्ट और मान्य है । उदाहरण रूप में यदि जड़ या चेतन, स्थूल या सूक्ष्म किसी भी वस्तु के स्वरूप में प्रश्न प्रावे तो तीनों फ़िरकों के अभिज्ञ अनुयायी दूसरे दार्शनिकों के सामने अपना मन्तव्य नित्यानित्य, भेदाभेद, अनेकानेक आदि रूप से समान रूप से अनेकान्त दृष्टि से स्थापन करने का अथवा जगत्कर्ता का प्रश्न श्रावे तो भी तीनों ही फ़िरकों के अभिज्ञ अनुगामी एक समान ही अपनी अनेकान्त दृष्टि रखेंगे । इस प्रकार जैनेतर दर्शनों के साथ विचार प्रदेश में वीर परम्परा के प्रत्येक अनुगामी का कार्य अनेकान्त दृष्टि की स्थापना करने में भिन्न नहीं है । अधूरा भी नहीं और कम अधिक भी नहीं। ऐसा होते हुए भी वीरपरम्परा के इन तीनों फ़िरकों में आचार विशेषकर मुनि श्राचार और उनमें भी मुनि सम्बन्धि पात्र वस्त्राचार के विषय में अनेकान्त दृष्टि का उपयोग करके विचार करेंगे तो हमें स्पष्ट ज्ञात होगा कि किस परम्परा में अनेकान्त दृष्टि का वारसा जाने प्रजाने अधिक प्रखंड रूप से सुरक्षित है । अन्त में हम शास्त्रों के तीनों फ़िरकागत्त वारसा की दष्टि से भी प्रस्तुत विषय पर विचार करेंगे । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy