________________
मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म (१) आध्यात्मिक विकास की विविध भूमिकाओं को स्पर्श करने वाले जैनत्व की साधना के स्वतंत्र विचार से अनुशीलन करने के लिये यदि तीनों फिरकों के उपलब्ध समग्र साहित्य का संतुलन करने से यह तो स्पष्ट दीपक के समान दीख पड़ता है कि मुनि वस्त्राचार संबन्धी सचेल और अचेल दोनों धर्मों में से भगवान महावीर या उनके समान इतर मुनियों के समग्र जीवन में अथवा उनके महत्व के भाग में अचेल धर्म को स्थान था। इस दृष्टि से नग्नत्व या अचेल धर्म जो दिगम्बर परम्परा का मुख्य अंश है वह वास्तव में भगवान महावीर के जीवन का और उनकी परम्परा का भी एक उपादेय अंश है। परन्तु अपनी आध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में प्रत्येक कम अधिक बलवाले यथार्थ साधक का समावेश करने की महावीर की उदार दृष्टि प्रथवा व्यावहारिक भनेकान्त दृष्टि का विचार करें तो हमें स्पष्ट ज्ञात होता है कि महावीर सर्व साधक अधिकारी के लिये एकांतिक नग्नत्व का आग्रह रखकर धर्म शासन के लोकग्राह्य प्रचार की चाहना प्रथवा कर ही न पाते। इनका अपने प्राध्यात्मिक बल का प्रादर्श चाहे कितनी ही पराकाष्टा तक पहुँचा हो तथापि यदि उन्हें अपने धर्मशासन को चिरंजीवी रखना इष्ट हो तो अपने व्यक्तिगत उच्चतम प्रादर्श का व्यवहार रखकर सहगामी अथवा अनुगामी दूसरे साधकों के लिये (यदि मूल गुण में अथवा मूलाचार में एक मत्य हो तो) वस्त्र पात्रादि स्थूल वस्तुओं के लिये मर्यादित छूट देनी ही पड़ेगी। मानव स्वभाव के, अनेकान्त दृष्टि के, और धर्मपंथ-समन्वय के अभ्यासी के लिये यह तत्त्व समझना सरल है। यदि यह दृष्टि ठीक हो तो हम कह सकते हैं कि भगवान वीर ने अपने धर्मशासन में प्रचेल और मोदित सचेल धर्म को समान स्थान दिया है । दिगम्बर परम्परा जब सच्चे मुनि के अंश की शरत रूप में नग्नत्व का एकान्तिक दावा करता है तब वह वीर के शासन के एक अंश का अति आदर करते हुए दूसरे सचेल धर्म के अंश की अवगणना करके अनेकान्त दष्टि का व्याघात करती है। इससे विपरीत श्वेतांबर अथवा स्थानकमार्गी परम्पराएं सचेल धर्म को मानते हुए और उसका समर्थन और अनुसरण करते हुए भी अचेल धर्म की अवगणना, उपेक्षा अथवा अनादर नहीं करतीं। किन्तु ये दोनों परम्पराएं दिगम्बरत्व के प्राणरूप अचेलधर्म की प्रधानता को स्वीकार करके जिस अधिकारी के लिये सचेलधर्म की अनिवार्यता देखती हैं उसके लिये स्थापन करती है। इस पर से हम तीनों फिरकों की दृष्टियों का अवलोकन करेंगे तो स्पष्ट ज्ञात होगा कि वस्त्राचार के विषय में दिगम्बर परम्परा अनेकान्त दृष्टि सुरक्षित नहीं रख सकी। जबकि बाकी की दोनों परम्पनों ने विचारणा में भी वस्त्राचार परत्वे अनेकान्त दृष्टि का संरक्षण किया है और अब भी वे इसी दृष्टि
1. वीरपरम्परा में स्त्री-पुरुष यहाँ तक कि कृत्रिम नपुसक को भी पंचमहाव्रत और मोक्ष प्राप्त
करने का निरूपन किया है। यदि महावीर को एकान्त नग्नत्व का ही आग्रह होता तो वे साध्वी संघ की स्थापना करके चतुर्विध संघ की स्थापना कभी न करते । मोक्ष मार्ग के पथिक रूप में महावीर ने स्त्री-पुरुष को समान माना है। महावीर के साधु संघ में सचेल-मचेल दोनों प्रकार के साधकों का समावेश है और साध्वी संघ में सचेल साधकों का ही उल्लेख है। दिगम्बर आर्यिका भी सवस्त्र होती है और उन्हें तिलोयपण्णत्ति प्रादि दिगम्बर पंथ के शास्त्रों में पंचमहाव्रती माना है । तथापि इस पंथ के वर्तमान अनुयायी आयिका को सवस्त्र होने से पांच महाव्रत मानने में आनाकानी करते हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org