SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 473
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म के लिये अपने १५ साथियों के साथ अहमदाबाद पहुंचे और वि० सं० १९३२ में आपने वीर परंपरा की शुद्ध सामाचारी तथा सिद्धांतों को माननेवाले श्वेतांबर जैन तपागच्छीय दीक्षा मुनि श्री बुद्धिविजय (बूटेराय ) जी से ग्रहण की। तब आपका नाम मुनि श्रानन्द विजय जी हुआ । दीक्षा का विवरण हम पूज्य बुद्धिविजय जी के जीवनचरित्र में कर आये हैं। पश्चात् वि० सं० १९३५ में वापिस पंजाब पधारे । अब अपने साथी साधुनों के साथ सर्वत्र शुद्ध सत्य जैनधर्म का प्रचार किया । अनेक जैनमंदिरों का निर्माण तथा प्रतिष्ठाएं कराईं। अनेक मुमुक्षुत्रों को दीक्षाएं दीं। अनेक शास्त्रार्थ किये, जिनका मुख्य विषय था कि वीर परम्परा में जिनप्रतिमा पूजन का स्थान तथा मुंहपत्ति का प्रयोग । इन में प्रापने विजय प्राप्त की । वि० सं० १९४३ मार्गशीर्ष वदी ५ को पालीताना में आपको तीस हज़ार जैन गृहस्थों तथा उपस्थित साधुयों ने मिलकर प्राचार्य पदवी से विभूषित किया। चार शताब्दियों से श्वेतांबर परम्परा में कोई प्राचार्य नहीं था। इस रिक्त स्थान की पूर्ति चार शताब्दियों के बाद आपको प्राचार्य पदवी से विभूषित करके श्रीसंघ को अपार हर्ष हुआ । इस समय से आपका नाम आचार्य विजयानन्द सूरि हुआ। राजस्थान, गुजरात, सौराष्ट्र आदि जनपदों में सत्यधर्म का प्रचार करते हुए अनेक प्राचीन जैनतीर्थों की यात्रा करते हुए आप वि० सं० १९४७ में पुन: पंजाब लौटे वि० सं० १६५० में आपने विदेशों में जैनधर्म के परिचय तथा प्रचार के लिए अपने प्रतिनिधि के रूप में जैन श्रावक श्री वीरचन्द राघवजी गांधी को चिकागो (अमरीका) श्री विश्वधर्म परिषद् में भेजा । वि० सं० १९५३ ज्येष्ठ सुदि ८ को आपका गुजरांवाला पंजाब में स्वर्गवास हो गया । वीर परम्परा का अखण्ड प्रतिनिधित्व' ४३४ "श्रीमद् विजयानन्द सूरीश्वर ने स्थानकमार्गी ( ढूंढक) सम्मत मुंहपत्ती बन्धन धौर मूर्ति उत्थापन इन दोनों का त्याग किया। मैं स्वयं भी ऐसा मानता हूं कि मुहपत्ती का एकांतिक बन्धन वस्तुतः आगमसम्मत तथा व्यवहार्य नही हैं श्रीर ऐसा भी मानता हूं कि प्राध्यत्मिक विकासक्रम अधिकारी विशेष के लिए मूर्ति उपासना का समुचित और शास्त्रीय स्थान है । धार्मिक भावना जब सांप्रदायिक रूप धारण कर लेती है । तब बहुत अटपटी बन जाती है । इसमें सत्यांश और निर्भयता का अंश दब जाता है । इसमें साम्प्रदायिक अथवा वास्तविक धार्मिक किसी एक मुद्दे की चर्चा ऐतिहासिक दृष्टि से करने पर कई पाठकों के मन में साम्प्रदायिक भावना की गन्ध आ जाना सम्भव है । यह बात मेरे ध्यान से बाहर नहीं है । एवं प्राजकल प्रतिष्ठित हुई ऐतिहासिक दृष्टि के नाम पर अथवा उसकी बाड़ में साम्प्रदायिक भावना को पोषण करने की प्रवृत्ति विद्वान अथवा विचारक माने जाने वाले व्यक्तियों में भी दिखलाई पड़ती है । इन सब भयस्थानों के होते हुए भी मैं प्रस्तुत चर्चा कर रहा हूं। यह एक ही विचार से कि जो साम्प्रदायिक अथवा साम्प्रदायिक सत्य संशोधक होंगे, जो साहित्य और इतिहास के अभिलाषी होंगे उन्हें यह चर्चा कदापि साम्प्रदायिक भाव से रंगी हुई भासित नही होगी । जैन परम्परा जो अन्तिम तीर्थंकर महावीर से वीर परम्परा कही जाती है । इसके ब तक छोटे-बड़े तड़ चाहे कितने भी हों, पर ये सब संक्षेप में श्वेतांबर, दिगम्बर, स्थानकमार्गी 1. इसकी चर्चा हम बुद्धिविजय जी के जीवन चरित्र में कर पाये हैं । 2. देखें दर्शन और चिंतन (गुजराती) पं० सुखलाल जी - पुस्तक १ विभाग पृ० ३०३ से ३१२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy