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हिंसा-अहिंसा का स्वरुप
परन्तु प्रागमों में तो साधु-साध्वी को ये सब क्रियाएं करते हुए भी पांच महाव्रतधारी कहा है और माना भी है। क्योंकि आगम में कहा है कि "जयणा" पूर्वक ये सब क्रियाए" करने से प्राणीवध यदि हो भी जावे तो साधु-साध्वी को हिंसा का दोष नहीं लगता। यदि साधु प्रमाद, असावधानी और कषाय प्रादि रहित होकर जयणा पूर्वक सब कार्य करता है तो वह महाव्रतधारी हैं, अहिंसक है, तीर्थकर भगवन्तों का प्राज्ञाकारी है। यदि अजयणा (प्रयत्ना) प्रमाद कषाय, राग-द्वेष, पसावधानी से करता है तो प्राणीवध न करने हुए भी हिंसक है । वह महाव्रतधारी नहीं है। इसी प्रकार यदि कोई जिनेश्वर प्रभु की प्रतिमा की जयणापूर्वक अप्रमादी, अकषायी और सावधान होकर पूजा करता है तो पूजक को हिंसक मानना भी तीर्थंकर भगवन्तों के सिद्धांत का अपलाप करना है।
प्रतः हिंसा-अहिंसा के स्वरूप को समझकर अपने हठाग्रह, कदाग्रह को छोड़कर श्री जिनप्रतिमा की पूजा सेवा स्वीकार करके आप लोगों को भी प्रात्मकल्याण की पोर अवश्य अग्रसर होना चाहिये तथा तीर्थ कर भगवन्तों की प्राज्ञाओं का पालन करने हुए सत्यमार्ग को अपनाना चाहिये । समझदारों को इशारा ही काफ़ी है ।
__इस प्रकार पूज्य बुद्धिविजय जी ने पूर्व पक्ष की तरफ़ से किये प्रश्नों का समाधान आगम पाठों, अकाट्य युक्तियों तथा तर्कपूर्ण दलीलों से किया । मागमों में पाने वाले चैत्य, जिनपडिमा
३. विशेष खुलासा-यदि कोई व्यक्ति प्रमाद (कषाय, लापरवाही और उपयोगरहित) गमनागमन करे अथवा कोई अन्य काम करे तो उस से जीव मरे अथवा न मरे तो भी हिंसा का दोष लगता है । यदि अप्रमाद से कार्य अथवा गमनागमन करता है, कदाचित उस से जीव वध हो भी जावे तो उसे भाव हिंसा का दोष नहीं लगता।
दृष्टांत-नदी में उतरनेवाले साधु-साध्वी को जयणापूर्वक पानी में उतरने पर भी प्रकाय के जीवों की विराधना, भाव हिंसा का कारण नहीं है । पानी की एक बूद में असंख्यात जीव होते हैं। यदि सेवाल वाला पानी हो तो उस में अनन्त जीवों का विनाश भी होता है। यदि नदी में उतरनेवाला मुनि प्रमादी हो तो उसे भाव हिंसा का दोष लगता है। अप्रमादी को नहीं लगता।
श्री भगवती सूत्र में कहा है कि केवलज्ञानी के गमनागमन से तथा उन के नेत्रों के चलनादि से बहुत जीवों का घात होता है, परन्तु उन्हे मात्र काययोग द्वारा ही इरियापथिक बन्ध होता है । ऐसा होने से प्रथम समय में बांधते हैं, दूसरे में भोगते हैं, तीसरे समय के निर्जरा कर देते हैं।
__इसी प्रकार जिनप्रतिमा की पूजा आदि में हृदय में दयाभाव तथा प्रभुभक्ति होने से, एवं अप्रमत भाव होने से यदि किसी सूक्ष्म जीव जन्तु का प्राणवध हो भी जावे तो उसे हिंसा का दोष नहीं लगता । परन्तु कषाय रहित अप्रमत्त शुद्ध भावों से प्रभु की भक्ति करने से महान उत्तम फल की प्राप्ति होती है। यहां तक कि सर्वथा कर्मक्षय होकर मोक्षप्राप्ति भी संभव है।
प्रथमांग श्री आचारांग सूत्र में भी कहा है कि"पमत्तस्स सव्वश्रो भयं अपमत्तस्स वि न कुतो वि भयमिति ।" मर्थात्-प्रमादी को सब भय हैं, परन्तु अप्रमादी को कहीं भी भय नहीं है ।
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