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________________ ४३२ मध्य एसिया और पंजाब में जैनधर्म आदि शब्दों के अर्थ तीर्थकर देवों के मंदिर, मूर्तियां तीर्थ आदि होते हैं इसे आगम के पाठों से ही स्पष्ट सिद्ध किया। यदि हम इस चर्चा को विस्तार से लिखते तो ग्रंथ अधिक विस्तार का रूप धारण कर लेता है। प्रतः संक्षिप्त लिखने में ही संतोष माना है ।। २-गणि मुक्तिविजय (मूलचन्द) जी का परिचय पंजाब में स्यालकोट नगर में प्रोसवाल बरड़ गोत्रीय लाला सुखेशाह की पत्नी महताबकौर की कुक्षी से बालक मूलचन्द का जन्म वि० सं० १८८६ में हुआ। मूलचन्द का एक बड़ा भाई था उस का नाम पसरूरीमल था। वि० सं० १६०२ में मूलचन्द ने १६ साल की आयु में मुनि बटेराय (बुद्धिविजय) जी से गुजरांवाला में ढूंढक मत की दीक्षा ली । छह वर्षों तक लगातार गुजरांवाला में ही रहकर लाला कर्मचन्द जो दुग्गड़ शास्त्री से जैन थोकड़ों और ग्रागमों का अभ्यास किया। वि० सं० १९०३ में गुरु शिष्य ने मुंहपत्तियों के धागे तोड़े और मुंह पर महपत्ति बाँधने का त्याग किया। वि० सं० १९०८ में अपने गुरु के साथ पंजाब से विहार कर वि० सं० १९१२ में अहमदाबाद में जैन श्वेतांबर तपागच्छ की संवेगी दीक्षा ग्रहण की और नाम मुक्तिविजय जी हा और बटेराय (बुद्धिविजय) जी के ही शिष्य रहे । वि० सं० १९२३ के अहमदाबाद में अपने दादा गुरु मणिविजय जी के साथ गणि पद प्राप्त किया। वि० सं० १९४५ में भावनगर में ५६ वर्ष की प्रायु में आपका स्वर्गवास हो गया। अग्नि संस्कार के स्थान पर आपकी देरी (समाधी मंदिर) का निर्माण हुआ। आप अपने गुरु की जीवन पर्यन्त सेवा में रहे । वापिस पंजाब लौटकर नहीं आए और गुजरात-सौराष्ट्र में ही जैनशासन की प्रभावना में जीवन बिताया। ३-शांतमूर्ति वृद्धिचन्द (वृद्धिविजय) जी का परिचय पंजाब के रामनगर जिला गुजरांवाला में वि० सं० १८६० पोष वदि ११ (ई० स० १७३३) के दिन लाला धर्मयश ओसवाल गद्दहिया गोत्रीय की धर्मपत्नि कृष्णादेवी की कुक्षी से कृपाराम का जन्म हसा । कृपाराम के चार भाई और एक बहन थी। वि० सं० १६०८ आषाढ़ सदि १३ (ई० स० १८५१) के दिन मुनि बूटेराय जी से दिल्ली में दीक्षा ली। नाम वृद्धिचन्द रखा। वि० सं० १९१० में अपने गुरु जी तथा गुरुभाई मूलचन्द जी के साथ अहमदाबाद पहुचे वि० सं० १६१२ में अहमदाबाद में अपन गुरु तथा गुरुभाई के साथ जैन श्वेतांबर तपागच्छीय दीक्षा ग्रहण की और बुद्धिविजय जी के ही शिष्य रहे । नाम वृद्धिविजय जी हुआ। वि० सं १९२५ में अहमदाबाद में शास्त्रभण्डार की स्थापना की। वि० सं० १९३० में भावनगर में धार्मिक पाठशाला की स्थापना की। वि० सं० १९३१ में पालीताना के ठाकुर के विरुद्ध पीलिटीकल ऐजेंट राजकोट के पास केस के लिए शास्त्रीय प्रमाणों को संकलन करके सेठों को दिये। वि० सं० १९३२ में पालीताना में धार्मिक पाठशाला की स्थापना की। भावनगर में श्री जैनधर्म प्रसारक सभा की स्थापना की। भावनगर में जेनधर्म प्रकाश नामक गुजराती मासिक पत्र चालू कराया। वि० सं० १६४६ वैसाख सुदि ७ को भावनगर में आपका स्वर्गवास हो गया। 1. विशेष जिज्ञासु हमारी लिखी हुई "जिनप्रतिमा पूजन रहस्य तथा स्धापनाचार्य की अनिवार्यता" नामक पुस्तक को अवश्य पढ़े। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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