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मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म २. साधु-साध्वी उठते हैं बैठते हैं, चलते-हलन चलन करते हैं, श्वासोच्छ्वास लेते छोड़ते हैं, खाते-पीते हैं, टट्टी-पेशाब करते हैं, सोते-जागते हैं, बोलते-चालते, वार्तालाप करते, हाथ-पैर सिकोड़ते-फलाते हैं, विहार करते हैं; इस सब कार्यों में प्राणिवध भी होता है । यदि मात्र प्राणिवध को ही हिंसा मानोगे तो साधु-साध्वी के पाँच महाव्रतों का पालन करना एकदम असंभव हो जावेगा। तब पाप की धारणा के अनुसार तो कोई भी पंचमहाव्रतधारी साधु-साध्वी न
रहेगा ?
यदि उठने-बैठने, चलने-फिरने प्रादि से जीवहिंसा हो जावे तो भी श्री तीर्थकर भगवन्तों के आदेशानुसार यत्नपूर्वक आचरण से बन्ध नहीं होता। अतः प्रमाद का त्याग ही यत्न है।
प्राचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार में कहा है कि -
"जीव मरे अथवा जीवित रहें प्रयत्नाचारी (प्रमादी) निश्चय ही हिंसक है तथा यत्न, (जयणा, विवेक, अप्रमाद-सावधानी) पूर्वक आचरण करनेवाले व्यक्ति को प्राणवध मात्र से बंध नहीं होता।" कहा भी है—यत्नापूर्वक आचरण करनेवाले दयावान भिक्षु को नवीन कर्मों का बन्ध नहीं होता और पुराने कर्मों का नाश भी होता है ।
"प्रयत्नापूर्वक आचरण करनेवाले व्यक्तियों को प्राणियों की हिंसा का दोष है। वे नये कर्मों का बन्ध भी करते हैं जिसके परिणामस्वरूप कड़वे फल भी भोगते हैं।"
- प्राचार्य कुन्दकुन्द के प्रवचनसार के उपर्युक्त संदर्भ की तत्त्वदीपिका नामक वृत्ति में प्राचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं जिस का सारांश यह है
हिंसा की व्याख्या दो अंशों में पूरी की गई है। पहिला अंश है (१) अन्तरंग-प्रमत्त योग अर्थात् राग-द्वेष युक्त किंवा असावधानी पूर्वक प्रवृत्ति और (२) दूसरा बहिरंग-प्राणवध । पहला अंश कारण रूप है और दूसरा अंश कार्यरूप है । इस का फलितार्थ यह होता है कि जो प्राणवध प्रमत्तयोग से हो वह हिंसा है ।
प्रमत्तयोग-प्रात्मा का प्रशुद्ध परिणाम होने के कारण इस के सद्भाब में प्राणवध हो या न हो तो भी हिंसा का दोष लगता है। (राग-द्वेष तथा प्रसावधानी के बिना) अप्रमत्त योग (यत्नपूर्वक-शुद्धयोग) से प्राणवध हो अथवा न हो तो भी हिंसा का दोष नहीं है ।
कहा भी है कि “यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी।" "मन एव कारणं बंध-मोक्षयो।" प्रतः प्रमाद के प्रभाव से शुद्धोपयोग होने से यदि प्राणवध हो भी जावे तो हिंसा का दोष नहीं है।
२. श्री गौतम-गणघरादि प्राचार्यों ने भी हिंसा-अहिंसा के स्वरूप में अहिंसा के स्वरूप के विषय में स्पष्ट कहा है कि :-"हिसा का कारण प्रमाद है "
शरीरी म्रियतां मा वा, ध्रुवं-हिंसा प्रमादिनः ।
स प्राणव्यपरोपेऽपि प्रमाद-रहितस्य न ॥१॥ अर्थात्-शरीरधारी प्राणी मरे अथवा न मरे पर प्रमादी को निश्चय ही हिंसा होती है । यदि प्रमाद रहित (अप्रमादी व्यक्ति से कदाचित जीव के प्राणों का नाश हो भी जावे तो उसे हिंसा का दोष नहीं लगता।
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