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जिन प्रतिमा पूजन जैनागम सम्मत है ।
में विषय, मद, विकथा, प्रमाद, कषाय प्रादि ( प्रमत्त प्रमाद के इन पांचों भेदों) का सर्वथा अभाव होता है । इसलिये जिनपूजा में हिंसा मानना श्रज्ञान है और जैनागम की मान्यताओं की अवहेलना करना है । मात्र इतना ही नहीं जो जिनप्रतिमा पूजन में हिंसा मानते हैं वे जैन तीर्थकरों द्वारा प्रतिपादित अहिंसा - हिंसा के स्वरूप से सर्वथा अनभिज्ञ हैं ।
अन्यथा पिण्डोपधि - शय्यासु स्थान – शयन -- गमनागमनाकुचन - प्रसारण -- - ssमर्शनादिषु च शरीरं क्षेत्रं लोकं च परिभुजानो -
"जले जन्तु स्थले जन्तुराकाशे जन्तुरेव च ।
जन्तु मालाकुले लोके कथं भिक्षुरहिंसकः ।। " [तत्त्वार्थ राजवार्तिक पृ० ५४१ ] हिंसकत्वेऽपि श्रर्हदुक्त यत्न-योगे न बन्धः । तद्विरहे एव यत्नः । तथा च पठन्ति
"मरदु व जियदु व जीवो प्रयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा ।
पयदस्स णत्थि बंधो हिंसामित्तेण समिदस्स ||" [कुंदकुंदाचार्य विरचिते प्रवचनसार ]
"जयं तु चरमाणस्स दयाविक्खिस्स भिक्खुणो । नवे न बज्झए कम्मे पोराणे य विधुयए ।। अजयं चरमाणस्स पाणभूयाणि हिंसओ । बज्झए पावर कम्मे से होति कडुगे फले ॥ '
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"प्रशुद्धोपयोगऽन्तरङ्गछेदः पर-प्राण व्यपरोपो बहिरङ्गः तत्र पर प्राण-व्यपरोप- सदभावे तदसदभावे वा तदविनाभावि प्रयताचारेण प्रसिध्यदशुद्धोपयोग-सदभावस्य सुनिश्चित हिंसा भावप्रसिद्धः । तथा तद्विनाभाविना प्रयतांचारेण प्रसिध्यद - शुद्धोपयोगासद्भाव परस्य पर प्राण व्यपरोपसद्भावेऽपिवन्धा प्रसिद्ध्या, सुनिश्चित हिंसाऽभाव प्रसिद्धेश्चांतरंग एवं छेदो बलियान्, व पुनर्बहिरंगः | एवमप्यंतरं गच्छेदायतन्मात्रत्वाद् बहिरंगच्छेदोऽभ्युपगम्यतेव ॥
[ प्रवचनसारस्य अमृतचन्द्र सूरि कृतायां वृत्तौ पृष्ठ २६१-२६२] श्रर्थात् - जीव के प्राणों का नाश होने पर भी श्री अरिहंत प्रभु के कहे अनुसार यत्नपूर्वक ( जयणा से ) हलन - चलन प्रादि करने से प्रमाद के अभाव के कारण हिंसा नहीं होती ।
प्रमाद ही हिंसा है । इसी लिये ( उमास्वाती वाचक ने) तत्त्वार्थसूत्र के सातवें अध्याय के नाठवे सूत्र में स्पष्ट कहा है कि “प्रमाद के योग से जीव के प्राणों का नाश करना हिंसा हैं ।"
यदि ऐसा न मानें तो मुनि आर्यका ( साधु-साध्वी) के श्राहार, उपधि (उपकरण), शय्या आदि में, स्थान, सोने, श्राने-जाने, उठने-बैठने, शरीर आदि को सिकोड़ने- फैलाने, श्रामर्शना प्रादि में शरीर क्षेत्र लोक का परिभोग करने से सर्वथा हिंसा ही हिंसा होनी चाहिये ।
तत्त्वार्थसूत्र की दिगम्बर राजवार्तिक टीका पृ० ५४१ में कहा है कि :
भरपूर
"जल में जीव-जन्तु हैं, स्थल में जीव जन्तु हैं और आकाश भी जीव जन्तुनों है । जीवजन्तुनों से भरे हुए चौदह राजलोक (सम्पूर्ण विश्व ) में भिक्षु ( साधु-मुनि ) अहिंसक कैसे ?”
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