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________________ ४२८ मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म २०. श्री आवश्यक सूत्र में भरत चक्रवर्ती के (अष्टापद पर्वत पर) जिनमदिर वनवाने का वर्णन है। २१. इसी सूत्र में वग्गृर श्रावक के श्री मल्लिनाथ प्रभु के मन्दिर बनवाने का वर्णन है। २२. इसी सूत्र में कहा है कि --प्रभावती श्राविका (उदायन राजा की पटरानी और राजा नेटक की पुत्री) ने अपने राजमहल में जिनमन्दिर बनवाकर श्री महावीर प्रभु की जीवितस्वामी (गृहस्थावस्था में कायोत्सर्ग ध्यान मुद्रा में) की मूर्ति स्थापित की थी और उस की प्रतिदिन पूजा करती थी। २३. इसी सूत्र में कहा है कि फूलों से जिनप्रतिमा को पूजने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। २४. इसी सूत्र में कहा है कि श्रेणिक राजा प्रतिदिन १०८ सोने के यवों से जिनप्रतिमा का पूजन करता था। २५. इसी सूत्र में कहा है कि साधु कायोत्सर्ग में जिनप्रतिमा पूजने का अनुमोदन करे । २६. इसी सूत्र में कहा है कि सर्वलोक में जिनप्रतिमाएं हैं उन की आराधना के निमित्त साधु और श्रावक कायोत्सर्ग करे। २७. श्री व्यवहार सूत्र के प्रथम उद्देशे में जिनप्रतिमा के सामने पालोचना करना कहा है। २८. श्री महाकल्प सूत्र में कहा है कि श्री जिनमन्दिर में यदि श्रावक-साधु दर्शन करने को न जावे तो प्रायश्चित आवे । २६, श्री महानिशीष सूत्र में कहा है कि श्रावक यदि जिनमन्दिर बनवावे तो उत्कृष्टा बारहवें देवलोक तक जावे । ३०. श्री जीतकल्पसूत्र में कहा है कि यदि श्री जिनमन्दिर में साधु-साध्वी दर्शन करने न जावे तो प्रायश्चित प्रावे । ३१. श्री प्रथमानुयोग में कहा है कि अनेक श्रावक-श्राविकाओं ने श्री जिनमन्दिर बनवाये और उन की पूजा की। अतः चक्रवतियों, राजाओं, महाराजाओं, रानियों, महारानियों, मविरति सम्यगदृष्टि देवियों देवताओं, इन्द्रों-इंद्रानियों, देशविरति श्रावक-श्राविकाओं, पांच भहाव्रतधारी साधु-साध्वियों, जंघाचारणादि लब्धिधारी मुनियों, गणधरों आदि सब के जैनागमों में जिनमन्दिर-जिनप्रतिमाएं बनवाने उन की वन्दना, नमस्कार-पूजा--उपासना करने के बहुत प्रमाण मिलते हैं । इस प्रकार से उपर्युक्त सब सूत्र पाठों को दिखलाकर समाधान किया। (२) १-जिनप्रतिमा पूजन में हिंसा भी संभव नहीं है परन्तु इस के द्वारा श्री तीर्थ कर प्रभु की भक्ति से कर्मों की निर्जरा, कर्मक्षय होने यावत् मोक्ष की प्राप्ति होती है। तत्त्वार्थ सूत्र में वाचक श्री उमास्वति जी महाराज ने हिंसा का स्वरूप बतलाते हुए कहा है कि "प्रमत्त-योगात्प्रणव्यपरोपरणं हिंसा ।' अर्थात् ---प्रमादवश जीवों के प्राणों का नाश करना हिंसा है। श्री जिनप्रतिमा पूजन 1. (१) न च सत्यपि व्यपरोपणे अहंदुक्तेन परिहरन्त्याः प्रादाभावे हिंसा भवति । प्रमादो हि हिंसा नाम । तथा च पठन्ति - "प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा" [तत्त्वार्थ ७/८] इति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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