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मुहपत्ती चर्चा
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"चउरंगुलं विहत्थी एवं मुहणंतगस्स उपमाणं
वितियं मुहप्पमाणं गणणपमाणेण एक्केक्क" ॥७११॥ व्याख्या-चत्वार्यगुलानि वितस्तिश्चेति, एतच्चतुरस्रं मुखानन्तकस्य प्रमाणं, अथवा इदं द्वितीयं प्रमाणं यदुत मुखप्रमाणं कर्त्तव्यं मुहणंत यं एतदुक्तं भवति-वसति प्रमार्जनादौ यथा मुखं प्रच्छाद्यते कृकाटिका-पृष्टतश्च यथा ग्रंथितु शक्यते तथा कर्तव्यं । त्र्यस्र कोणद्वये गृहीत्वा तथा कृकाटिकयां ग्रंथात शक्यते तथा कर्तव्यमिति एतद् द्वितीयं प्रमाण- गणणा प्रमाणेन पुनस्तदेकैकमेव मुखानन्तकं भवतीति ।
इस गाथा में मुखवस्त्रिका का परिमाण (माप) बतलाया है। जो चारों ओर से एक वेंट और चार अंगुल हो अर्थात् १६ अंगुल लंबी और १६ अंगुल चौड़ी हो ऐसी चार तहवाली मुखवस्त्रिका होती है। यह मुखवस्त्रिका का एक माप है । दूसरा उपाश्रय आदि का प्रमार्जन (प्रतिलेखन) करते समय जिस मुखवस्त्रिका को त्रिकोण करके उसके दोनों सिरों को पकड़कर नासा और मुख ढक जावे और गर्दन के पीछे गाँठ दी जावे, इस प्रकार की मुखवस्त्रिका होनी चाहिये । यह उसका दूसरा माप या स्वरूप है। परन्तु ध्यान में रहे कि यहाँ जो मुखवस्त्रिका के दो माप या स्वरूप बतलाये हैं। वे एक ही मुखवस्त्रिका के दो विभिन्न स्वरूप या माप है। वैसे गणना में तो एक ही मुखवस्त्रिका समझे दो नहीं।
४. जैन साधु-साध्वी जब से दीक्षा लेते हैं तभी से ही मुहपत्ती का प्रयोग हाथ से ही करते हैं। इस बात की पुष्टि के लिये श्री ऋषभदेव की बीच में बैठी हुई प्रतिमा के साथ दो खड़े तीर्थ करों की मूर्तिमाँ हैं । यह प्रतिमा देवगढ़ किले के जैनमंदिर में है और अतिप्राचीन ईसा से पूर्व समय की है। इसी प्रतिमा में इन तीनों तीर्थकरों की मूर्ति के नीचे दो जनसाधुनों की प्रतिमाएं भी अंकित हैं। इनके बीचोबीच स्थापनाचार्य है। एक साधु के हाथ में मुखवस्त्रिका है और दूसरा साधु मुहपत्ती को खोलकर अपने दोनों हाथों से उसका पडिलेहन कर रहा है।
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- क्योंकि दिगम्बर साधु अथवा आर्यिका न तो मुहपत्ती रखते हैं और न स्थापनाचार्य ही रखते हैं । इसलिये इसमें सन्देह का कोई अवकाश ही नहीं रहता कि प्रभु महावीर और उनसे पहले के तीर्थंकरों के समय से
महपत्ती को बाँधने का कभी प्रचलन नहीं रहा। निग्रंथ श्रमण-श्रमणी (जो आजकल श्वेतांबर जैनों के नाम से प्रसिद्ध हैं) सदा से मुहपत्ती का प्रयोग आज तक करते आ रहे हैं।
प्रतिमा
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