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________________ ४२४ मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म दूसरी बात इस प्रतिमा से यह भी स्पष्ट है कि अत्यन्त प्राचीनकाल से ही श्वेतांबर जैन नग्न और अनग्न दोनों प्रकार की जिनप्रतिनों को मानते तथा पूजा-अर्चा करते आ रहे हैं। (लेखक) ५. दूसरा प्रमाण हम यहाँ हिन्दुओं के शिवपुराण का देते हैं। जिनमें जैनधर्म की उत्पत्ति का वर्णन करते हुए जैनसाधु के स्वरूप का वर्णन दो श्लोकों में इस प्रकार किया है "मुण्डिनं म्लानवस्त्रं च गुम्फिपात्र समन्वितम् । दधानं पुंजिका हस्ते चालयंतं पदे पदे ॥१॥ वस्त्रयुक्तं तथा हस्तं क्षिप्यमानं मुखे सदा । धर्मेति व्याहरन्तं न वाचा किल्कवया मुनिम् ॥२॥ अर्थात्-सिर से मुडित (लोचकिये हुए), मलीन वस्त्र पहने हुए, काष्ठ के पात्र और पुंजिका (रजोहरण) हाथ में रखते हुए पद-पद पर उसे चलायमान करते हुए (पडिलेहण करते हुए), हाथ में एक वस्त्र लेकर उससे मुख को ढाँकते हुए और धर्मलाभ मुख से बोलते हुए, ऐसे पुरुष को उत्पन्न किया। (अ) इन दो श्लोकों से भी स्पष्ट है कि जैन साधु-साध्वी हाथ में लेकर ही महपत्ती का प्रयोग सदा करते हैं। (आ) इन श्लोकों से इस बात की भी पुष्टि हो जाती है कि नियुक्तियों, चणियों आदि में वर्णन किये हुए मुखवस्त्रिका को हाथ में रखने के उल्लेख मूल जैनागमों के अनुकूल हैं। इसलिये उन्हीं के अनुसार आचरण करके तीर्थकर प्रभु की प्राज्ञानों का पालन करना सम्यग् दृष्टि का लक्षण है। यदि नियुक्ति को न माना जाय तो मुहपत्ती का स्वरूप कहीं से भी मिलना असंभव नहीं है । अतः इसके विपरीत पाचरण करना जिनाज्ञा के विरुद्ध है। (इ) मुह को चौबीस घंटे बाँधने का और मुंहपत्ती में डोरा डालकर कानों में लटकाये रहने का आगमों, नियुक्तियों, चूणियों, टीकानों और भाष्यों (पंचांगी) में कहीं भी न होने से जिनाज्ञा के विरुद्ध जानकर हमने इसको बाँधने का त्याग करना उचित समझा है आप लोग भी ऐसा ही करने से सर्वज्ञ तीर्थंकरों की प्राज्ञा को पालन करने के सौभागी बनेंगे । पूर्व पक्ष-मुख द्वारा निकले हुए शब्द-वाष्प आदि से हिंसा संभव नहीं होने से मुहपत्ती का प्रयोजन कुछ नहीं रहता। उत्तरपक्ष--इसी प्रोपनियुक्ति में मुहपत्ती का प्रयोजन जिस गाथा में बतलाया है, उसे भी जान लो "संपातिम रयरेणुपमज्जणटा वयंति महपत्ति । नासं मुहं च बंघइ तीए वसही पमजंतो" ॥७१२॥ व्याख्या-संपातिम सत्त्वरक्षणार्थं जल्पद्भिमुखेदीयते, तथा रजः सचित पृथ्वीकाय-स्तत्प्रमार्जनार्थं मुखवस्त्रिका गृह्यते; तथा रेणु प्रमार्जनार्थं ये मुखवस्त्रिका ग्रहणं प्रतिपादयन्ति पूर्वर्षयः । तथा नासिका मुखं च बध्नाति तथा मुखंवस्त्रिकाया वसति प्रमार्जयन् येन न मुखादी रजः प्रविश्यतीति ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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