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________________ ४२२ मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म व्याख्या-चउरंगुल-त्ति चत्तारि अंगुलानि 'पायाणं' अंतरं करेयव्वं 'मुहपत्ति' मुहपोत्ति उज्जोए त्ति दाहिण हत्थेण महपोतिया घेतव्वा उन्यहत्थे रयहरणं' कायव्वं एतेण विहिणा 'बोसट्ठ चित्तदेहो त्ति पूर्ववत् काउस्सग्गं करिज्जाहि त्ति गाथार्थः । इस गाथा में कायोत्सर्ग की विधि का वर्णन है। कायोत्सर्ग केलिये इस प्रकार खड़े होना चाहिये, जिससे दोनो पैरों के बीच में चार अंगुल का अन्तर हो दक्षिण (दाहिने) हाथ में मुंहपत्ती एवं (बायें) हाथ में रजोहरण रखना। दोनों भुजाओं को लम्बी लटकाकर सीधे खड़े होकर शरीर का व्युत्सर्ग करते (शरीर को बोसराते) ध्यानारूढ़ होना चाहिये । यह काउस्सग्ग (कायोत्सर्ग) की विधि है । इस गाथा में कायोत्सर्ग करते समय मुखवस्त्रिका को दाहिने (सीधे) हाथ में रखने का स्पष्ट निर्देश है । न कि मुह पर बाँधने की बात है ! अापकी शंका के समाधान केलिये उपर्युक्त प्रमाणों से कोई कमी नहीं रही होगी अतः समाधान हो गया होगा? पूर्वपक्ष-पाप ने नियुक्ति आदि के जो प्रमाण दिये हैं वे हमें मान्य नहीं हैं। ये तो पीछे के आचार्यों ने मनमाने लिख दिये हैं। हम तो मूल आगमों के पाठ को मानते हैं सो पाठ बतलावें। __दूसरी बात यह है कि 'हत्थगं' शब्द का अर्थ जो 'मुखपोतिका' व्याख्याकार ने किया है हमारे परम्परा के साधु इसका अर्थ 'पूजनी' करते हैं। क्योंकि पूंजनी (प्रमार्जनी) हाथ में रखी जाती है और महपत्ती मुह पर बाँधी जाती है । इसलिये इसका अर्थ मुहपत्ती संभव नहीं है। उत्तर पक्ष-१. मूलागमों में मुंहपत्ती का वर्णन तो पाया है परन्तु इसके स्वरूप और प्रयोजन का वर्णन नहीं मिलता। यदि मिलता है तो प्रोधनियुक्ति में मिलता है और वास्तव में विचार किया जावे तो नियुक्ति भी पागम के समान ही प्रामाणिक है। कारण कि उसके निर्माता कोई साधारण व्यक्ति नहीं हैं किन्तु पाँचवें श्रुतकेवली चौदह पूर्वधारी जैनाचार्य भद्रबाहु स्वामी हैं। शास्त्रानुसार तो अभिन्न दसपूर्वी तक का कथन भी सम्यक् (यथार्थ) ही माना है। क्योंकि अभिन्न दसपूर्वी नियमेन सम्यग्दृष्टि होते हैं। इसके लिये नन्दीसूत्र का पाठ यह है "इच्चेयं दुवालसंग गणिपिडगं च उदस्स पुम्बिस्स सम्मसूनं अभिण्णा दसपुग्विस्स सम्मसूत्रं तेण परं भिण्णेसु भयणा से सम्म सून।' और यह नियुक्तिकार जैनाचार्य पंचम श्रुत केवली श्री भद्रबाहू स्वामी चतुर्दश पूर्वधारी थे। इसलिये उनकी प्रमाणिकता में सन्देह को स्थान नहीं । आप लोग हत्थगं शब्द का अर्थ पूजनी करते हैं यह भी सर्वथा आगम तथा प्रसंग के विपरीत है जो कि इसकी व्याख्या से स्पष्ट हो जाता है । 'हत्थग' का अर्थ 'पूजनी' आप के उपसंप्रदाय वाले तेरापंथी भी नहीं मानते । जो कि वे भी मापके समान ही मुखवस्त्रिका को अपने मुह पर बांधे रहते हैं। अतः प्रागमविरुद्ध पर्थ करना या मानना उचित नहीं है। आगमविरुद्ध मर्थ करनेवालों को शास्त्रकारों ने अनन्तसंसारी तथा निन्ह व माना है। ३. अोधनियुक्ति में इस विषय से सम्बन्ध रखने वाली दो गाथाएं और भी हैं। एक में मुहपत्ती-मुखवस्त्रिका के परिमाण-माप का स्वरूप और आकार का वर्णन है तथा दूसरी में उसका प्रयोजन बतलाया है । यथा-~ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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