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________________ मुंहपसी चर्चा ध्याख्या--तत्र 'अणुन्नवि त्ति' अनुज्ञाप्य सागारिक परिहारतो विश्रमण व्याजेन ततस्वामिनभवग्रहं 'मेधावी' साधु 'प्रतिच्छन्ने' तत्र कोष्ठादौ 'संवुतं' उपयुक्त सन् साधुः ईर्या प्रतिक्रमणं कृत्वा तदनु 'हत्थगं' हस्तकं मुखवस्त्रिका रूपं आदायेति वाक्य शेष: 'संप्रमृज्य' विधिना तेन कायं तत्र भुजीत 'संयतो' राग-द्वेषावपाकृत्येति सूत्रार्थः ॥ __ भावार्थ-ग्रामादि से गोचरी लाकर माहार करने के निमित्त स्थानवाले गृहस्थी से प्राज्ञा लेकर एकान्त स्थान में जाकर ईर्यावही पडिकमे तदनन्तर हत्थग अर्थात् मुखवस्त्रिका पडिलेहे । उससे विधिपूर्वक शरीर की पडिलेहणा करे । उसके बाद समभावपूर्वक एकान्त में आहार करे। इस गाथा में मुखवस्त्रिका केलिये प्रयुक्त हुप्रा शब्द 'हस्तकं मुखवस्त्रिका के हस्तगत होने की ओर ही संकेत करता है । इसको अधिक रपष्ट करने के लिये और प्रमाण देता हूं। १-अंगचूलिया शास्त्र ४३ सूत्र में कहा है कि पुग्वि पत्ति पोहिय वंदणं दानो। अर्थात् - पहले मुख को वस्त्र से ढांककर पीछे वन्दना करे। यदि मुंह बंधा होता तो मुख ढाँकने को क्यों कहते ? २--"चउरंगुल पायाणं मुंहपत्ति उज्जुए, उवहत्थ रयहरणं । बोसट्ठ चत देहो काउस्सग्गं करिज्जाहि।" (प्रावश्यक नियुक्ति गाथा १५४५) 1. ढूंढकों (स्थानकमागियों) के उपसंप्रदाय तेरापंथ के प्राचार्य श्री तुलसी गणि जी ने अपने द्वारा संपादित दशवकालिक की हत्थगं वाली गाथा की टिप्पणी में नं० २०३ से २०४ तक पृष्ठ २७ में लिखा है कि-'अनुज्ञा लेकर (अणुन्नवेति) स्वामी की अनुज्ञा प्राप्त करने की विधि इस प्रकार है-“हे श्रावक ! तुम्हें धर्मलाभ है। मैं मुहूर्त भर यहां विश्राम करना चाहता हूँ।" "अनुज्ञा देने की विधि इस प्रकार प्रकट होती है-"गृहस्थ नतमस्तक होकर कहता है-आप चाहते हैं वैसे ही विश्राम की आज्ञा देता हूं।" छाये हुए एवं संवृत स्थान में (पडिछन्नम्मि संबुडे)। जिनदास चूणि के अनुसार 'पडिछन्न और संवृत' ये दोनों शब्द स्थान के विशेषण हैं । उत्तराध्ययन में ये दोनों शब्द प्रयुक्त हुए हैं, शांताचार्य ने इन दोनों को मुख्यार्थ में स्थान का विशेषण माना है और गौणार्थ में संवृत को भूमिका विशेषण माना है। बृहत्कल्प के अनुसार मुनि का आहार स्थल 'प्रच्छन्न' ऊपर से छाया हुआ और 'संवृत' पार्श्वभाग में प्रावृत होना चाहिये। इस दृष्टि से प्रतिच्छन्न और संवृत दोनों विशेषण होने चाहिये । हस्तक से (हत्थग) हस्तक का अर्थ मुखपोतिका' मुखवस्त्रिका होता है। कुछ अाधुनिक व्याख्याकार [स्थानकमार्गी] हस्तक का पर्थ पूंजनी (प्रमार्जनी) करते हैं। किन्तु यह साधार नहीं (बिना आधार के) लगता है। प्रोपनियुक्ति आदि प्राचीन ग्रंथों में मुखवस्त्रिका का उपयोग प्रमार्जन करना बतलाया है। पात्र केसरिका का अर्थ होता है पात्र मुखवस्त्रिका के काम आने वाला वस्त्र खंड । 'हस्तक', मुखवस्त्रिका और मुखांतक, ये तीनों पर्यायवाची शब्द हैं। १-(क) अ० चू० ससि सोवरियं हस्संतं हत्थगं । २-(ख) जि० चू० पृ० १८७ मुखपोतिया भण्णइ त्ति । ३-(ग) हा० टी० पृ० १७८ हस्तक मुखवस्त्रिका रूपं । (तुलसी गणि संपादित दशवकालिक) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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