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________________ सद्धर्य संरक्षक मुनि श्री बुद्धिविजय जी ४१५ करना प्रादि अनेक प्रकार के शिथिलाचार-म्रष्टाचार सेवन करनेवाले पासस्थों की पूजा तथा अनेक क्रियाएं और बातें जो जैनागमों के विरुद्ध थीं; आपने इनका विरोध कर सुधार का बीड़ा उठाया और सद्धर्म के प्रचार और प्रसार के लिये दृढ़तापूर्वक डट गये । ५---पंजाब में यतियों तथा लुकामति ऋषियों ने तीर्थंकर देवों द्वारा प्ररूपित जैनधर्म के शुद्ध स्वरूप में विकृति ला दी थी। इस विकृति को दूर करने के लिए सद्प्रयास किये । ६-भारत के अन्य प्रदेशों में उपर्युक्त दोनों कारणों के साथ शिथिलाचारी-स्थानापति संवेग साधु ; इन तीनों की जैनागमों के विरुद्ध प्राचरण का प्रचार हो जाने के कारण जैनधर्म के स्वरूप का विकृत रूप में लोगों में प्रचार हो जाना। जिससे जैनधर्म की निन्दा होने लगी थी। पंजाब में जैनों को लौंका के चुहड़े (भंगी) कहकर जनेतर लोग घृणा करने लग गये थे । इत्यादि शिथिलताओं, विकृतियों और निन्दा को मिटाने के लिए घोर पुरुषार्थ किया। ७. पंजाब में सदा आप ने एकाकी विहार किया। किसी भी श्रावक आदि की सहायता अथवा आडम्बर प्रादि के बिना विचरते रहे। आहार-पानी निवासस्थान प्रादि की दुर्लभ प्राप्ति अथवा प्रभाव के कारण क्षुधा-पिपासा आदि परिषह सहन करने में दृढ़ संकल्प थे। पंजाब में विरोधियों की तरफ़ से उत्पात के कारण अपनी सुरक्षा तथा सुख सुविधाओं के लिये अपने साथ किसी भी प्रकार का प्रबन्ध रखना, शास्त्र मर्यादा का उल्लंघन समझते थे । पाप किसी भी भक्त अथवा श्रीसंघ की सहायता के बिना तथा उन्हें बिना समाचार दिये विहार करते थे। ८. आपने एकाकी घोर उपसर्गों, कठोर परिषहों, भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी को बर्दाश्त कर श्री वीतराग केवली तीर्थंकर भगवन्तों के वास्तविक सत्यधर्म के पुनरुत्थान करने में विजय प्राप्त की। पश्चात् प्रापके ही लघु शिष्य तपागच्छीय जैनाचार्य न्यायाम्भोनिधि श्री विजयानन्द सूरीश्वर (प्रात्माराम) जी महाराज ने इन पाखंडों को जड़मूल से हिला दिया। ६. गुजरात और सौराष्ट्र में प्राप श्री के साथ आप के दो सुशिष्यों ने गणिश्री मुक्तिविजय जी, आदर्श गुरुभक्त मुनि श्री वृद्धिविजय जो, पंजाब में नवयुग निर्माता श्री विजयानन्द सूरि जी ने विजय दुन्दुभी बजायी। गणि मुक्तिविजय जी तथा शांतमूर्ति वृद्धिविजय जी गुजरात में पाने के बाद अपनी जन्मभूमि पंजाब में कभी नहीं पधारे । ये दोनों गुजरात और सौराष्ट्र में ही विचरे। १०. हाँ आप मुनिराजों के शिष्यों-प्रशिष्यों ने भारत के अन्य सारे प्रदेशों में भ्रमण करके इन तीनों गुरुभाइयों गणि मुक्तिविजय जी, शांतमूर्ति मुनि वृद्धिविजय जी तथा प्राचार्य विजयानन्द सूरि जी ने जिन क्षेत्रों को स्पर्श नहीं किया था; वहाँ विचर कर भी सद्धर्म का सर्वव्यापक प्रचार किया। ११. आज तपागच्छ में हजारों साधु-साध्वियां हैं। इनमें अधिकतम समुदाय सद्धर्म संरक्षक मुनि श्री बुद्धिविजय (बूटेराय) जी का ही है। सारांश यह है कि यद्यपि भारत में अंग्रेजों का राज्य स्थापित हो चुका था परन्तु पंजाब 1. यहां अति संक्षिप्त जीवन वृतांत सद्धर्म संरक्षक का लिखा है। विस्तार से जानने के इच्छक देखें इसी लेखक द्वारा लिखित सद्धर्भ संरक्षक नामक पुस्तक । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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