SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 455
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म में लोहपुरुष सिक्ख वीर शेरे पंजाब महाराजा रणजीतसिंह का राज्य था। यहां जिनमंदिर थे किन्त इन्हें पूजने वाला कोई नहीं रहा था। जो मन्दिर यतियों के थे वे तो बचे रहे, बाकी के प्राय: समाप्त कर दिये गये थे । आप ने पंजाब में पुनः सद्धर्म की स्थापना तो की, किन्तु गुजरात पौर सौराष्ट को भी धर्म में खूब चुस्त किया । आप को पंजाब की सार-संभाल की सदा चिंता रहती थी परन्तु वृद्धावस्था के कारण फिर पंजाब में न प्रापाये । अलौकिक धर्मप्रेम, असीम आत्मश्रद्धा, अजोड़ निःस्वार्थता, और अद्भुत निस्पृहता से क्षत्रीय बालब्रह्मचारी श्री बूटेराय जी महाराज इस काल में संवेगो साधु संस्था के प्रादि जनक कहलाये । पंजाब से लेकर गुजरात-सौराष्ट्र में समस्त जीवन पर्यन्त जैनधर्म का डंका बजाने में प्राप अलौकिक पुरुष के रूप में निखरे । सद्धर्म के संरक्षण के लिये प्राणों की बाज़ी लगाकर सच्चे वीर पुरुष कहलाये और अपने पीछे वैराग्य तथा चरित्र सम्पन्न शिष्य समुदाय छोड़ गये। प्राप ने मुख्य रूप से लुकामतियों से अनेक बार दो विषयों पर चर्चाएं की। वे हैं (१) महपत्ती और (२) जिनप्रतिमा की उपासना । हम यहाँ पर इन चर्चाों का उल्लेख पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष के नाम से करते हैं। १-मुंहपत्ती चर्चा चर्चा का विषय था--"क्या मुहपत्ती को मुह पर बांधना जैनागम सम्मत है और न बांधने से जीवहिंसा होती है या नहीं ? पूर्वपक्ष-प्रभु महावीर प्रादि तीर्थंकरों के साधु-साध्वी प्रपने मुह पर मुहपत्ती बांधते थे, इसलिये हम भी बाँधते हैं । इसका प्रमाण श्री विपाक सूत्र में प्रभु महावीर के प्रथम गणधर श्री इन्द्रभूति गौतमस्वामी का विद्यमान है और मुखपत्ती मुह पर नहीं बांधने से वायुकाय आदि जीवों की हिंसा होती है। पंचमांग श्री भगवती सूत्र के शतक १६ उद्देशे २ में शक्रेन्द्र के प्रसंग में खले मह बोलने से भगवान महावीर ने बोलने वाले की भाषा को सावध कहा है। सावध शब्द का अर्थ है - हिंसादि दोष वाली। उत्तरपक्ष (१)-- विपाक सूत्र में वर्णन है कि श्री गौतमस्वामी को रानी मृगादेवी ने कहा कि अपने महपर मुह पत्ती बांध लो क्योंकि जिस रोगी मृगापुत्र लोढा के पास हमने जाना है उसके शरीर से बहुत दुर्गन्ध छूट रही है। यदि गौतमस्वामी के मुख पर पहले महपत्ती बन्धी होती तो बांधने को क्यों कहा? इससे स्पष्ट है कि गौतमस्वामी के मुख पर मुहपत्ती बन्धी नहीं थी। दुर्गन्ध से बचने के लिये उन्हें रानी ने मुह-नाक ढाँकने के लिये कहा था, वह भी मात्र उतने ही समय के लिये कि जब तक वे रोगी के पास रहें, न कि सदा सर्वदा के लिये । वह पाठ इस प्रकार है "तते णं से भगवं गोतमे मियादेवि पिनो समणगच्छति । तते णं सा मियादेवी तं कट्ठसगडियं प्रणकडढमाणी जेणेव भूमिघरे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छइत्ता चउप्पुडेणं वत्थेणं मुहं बंधमाणी भयव गौतमं एवं वयासि तुम्भे वि णं भंते ! मुहपोत्तियाए मुह बंधह । तते णं भगवं गौतमे मियादेवीए एवं वुत्ते समाणे मुहपोत्तियाए मुहं बंधति । बंधइता।" इत्यादि (विपाक-सूत्र मृगापुत्र लोढा का अधिकार) अर्थात्-तब भगवान गौतम स्वामी मृगादेवी के पीछे-पीछे चल दिये। तत्पश्चात् वह मृगादेवी काष्ठ की गाड़ी को खेंचती हुँचती जहाँ भूमिघर (भोयरा) है वहाँ पाती है और चार पट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy