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________________ ४१४ मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म ; idio ५. श्री सलामतराय जी श्री चरित्रविजय जी श्री अानन्दविजय जी ६. , हाकिमराय जी ,. रतनविजय जी , प्रानन्दविजय जी ७. , खूबचन्द जो ,, संतोषविजय जी ,, प्रानन्दविजय जी ८. , कन्हैयालाल जी , कुशलविजय जी , अानन्दविजय जी तुलसीराम जी ,, प्रमोदविजय जी ,, प्रानन्दविजय जी , कल्याणचन्द जी ,, कल्याणविजय जी , चरित्रविजय जी , निहालचन्द जी , हर्षविजय जी ,, लक्ष्मीविजय जी , निधानमल जी ,, हीरविजय जी ,, कुमुद विजय जी ,, रामलाल जी , कमलविजय जी ,, लक्ष्मीविजय जी १४. , धर्मचन्द जी ., अमृतविजय जी , रतनविजय जी १५. ,, प्रभुदयाल जी ,, चन्द्रविजय जी , रंगविजय जी १६. , रामजीलाल जी ,, रामविजय जी ,, मोहनविजय जी आप सब मुनिराजों ने शुद्ध चरित्रधारक और पालक की पहचान के लिए पीली चादर को भी धारण किया। पीली चादर का प्रचलन संवेगी साधुनों में वि० सं० १७०६ में पंन्यास सत्यविजय जी ने ढूंढियों और यतियों से भिन्नता और शुद्ध चरित्र की पहचान के लिये किया था। २०-वि० सं० १९३२ (ई० स० १८७५) में अहमदाबाद में प्रापकी निश्रा में मुनि प्रानन्दविजय (प्रात्माराम) जी तथा शांतिसागर के शास्त्रार्थ में मुनि श्री आनन्दविजय जी की विजय हुई। २१ -वि० सं० १९३२ से १९३७ (ई० स० १८७५ से १८८०) तक अहमदाबाद में आत्मध्यान तथा योग में लीन रहे । २२–आपने अनेक बार हस्तिनापुर, सिद्धगिरि, गिरनार आदि अनेक तीर्थों की यात्राएं संघों के साथ तथा अकेले भी की। २३–वि० सं० १९३८ (ई० स० १८८१) चैत्र वदि ३० को अहमदाबाद में स्वर्गवास हुआ । श्री बुद्धि विजय जी द्वारा क्रांति १-व्याख्यान वांचते समय कोनों के छेदों में मुंहपत्ती डालकर व्याख्यान न करना। २-चैत्यवासी यतियों, श्रीपूज्यों, गुरांजी का श्वेतांबर जैनसाधु के वेश में परिग्रह संचय, जिनचैत्यों में निवास तथा जनशासन विरुद्ध आचार होने के कारण, ऐसे असंयतियों की भक्ति पूजा का विरोध । ३-लुकामतियों (ढूंढक-स्थानकवासियों) द्वारा जिनप्रतिमा भक्ति का विरोध तथा मुंहपत्ती में डोरा डालकर चौबीस घंटे उसे मुंह पर बांधे रहना, तीर्थंकरों द्वारा प्ररूपित जैनागमों के विरुद्ध साधु वेष होने से ऐसे अन्यलिगियों की पूजा मानता का निषेध ।। ४-शिथिलाचारी संवेगी साधुओं का श्रावक-श्राविकानों द्वारा अपने लिये धन संचय करना-कराना एवं वर्षों तक एक स्थान पर स्थानापति के रूप में निवास करना, रात को दिये-बत्ती की रोशनी में व्याख्यान करना । साधुप्रो-साध्वियों, श्रावक-श्राविकानों का एक स्थान में निवास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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